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Vol XXII, 1998 सर्वानन्दसूरिकृत श्रीजगडूचरित
125 में नेमिमाधव मंदिर, कुन्नड में हरिशकर मदिर, ढाँक(सौराष्ट्र) में आदिनाथ मदिर तथा वर्धमान (वढवाण) में अष्टापद दहेरासर बनवाया । शतवाटी नगरी में ऋषभदेव का दहेरासर बनवाया । शेत्रुजय पर सात दहेरी, पौषध शाला, शंखेश्वर पार्श्वनाथ के दो रजतपाद, पित्तल का देवालय, गुरु के शयन के लिये ताम्रपलग बनवाये । खीमली में मस्जिद बनवायी । परमदेव का श्रीषेण नामक शिष्य को उत्सव के साथ आचार्यपदवी दी । राजा के सैन्य द्वारा मुघल लोगों को जीतकर शाति स्थापित की। एकदा परमदेव गुरु ने जगडू को एकात में कहा
द्वीन्द्वग्नि चन्द्रवर्षेषु व्यतीतेष्वथ विक्रमात् ।
दुभिक्षं सर्वदेशेषु भावि वर्षत्रयावधि ॥ अपने प्रवीण अनुचर भेजकर सभ देशों में सभी तरहके धान्य का संग्रह करने को गुरु ने कहा। जगत के लोगों को जीवनदान देकर यश प्राप्त करना चाहिये । जगडू ने गुरुवचन को सर पर रखा। पूरा आयोजन करके अनेक देशों में धान्य का सग्रह किया । सचमुच अकाल पड़ा । दुष्काल के दो वर्ष कष्ट से पसार हुए । राजाओं के कोठारों में भी धान्य नहीं बचा था । एक द्रम्म(चवन्नी) से चना के तेरह दानें मिलते थे ।
दान, दया और युद्ध ये तीन प्रकार की वीरता प्राप्त श्रीमालवश के रत्न जगडू ने लावणप्रसाद के पुत्र वीसलदेव को अन्न के आठ हज़ार कोथले दिये ।१०
सोमेश्वर आदि कवियों ने जगडू की प्रशंसा की । सर्वानन्दसूरिने भी "श्री श्रीमालकलोदयक्षितिधरा "१८ श्लोक में प्रशसा काव्यात्मक शैली में की है। अन्य काव्यात्मक और प्रशसात्मक श्लोकों में बलि, शिव, विष्णु गोवर्धनधर कृष्ण, दिग्गजों, पश्चिम की गगा, धन्वन्तरि आदि के सन्दर्भ में उपमा, व्यतिरेक, रूपक आदि अलंकारों से जगडू का वर्णन हुआ है।
जगडू ने कौनसे राजा को कितनी सहाय की थी इसके बारे में ऐतिहासिक माहिती इस काव्य में दी गई है। "सिंध के राजा हमीर को धान्य के १२००० कोथले, उज्जैन के राजा मदनवर्मन को धान्य के १८००० कोथले, दिल्ही(गर्जनेश) के सुलतान मोजउद्दीन को धान्य के २१००० कोथले, काशी के राजा प्रतापसिंह को धान्य के ३२००० कोथले, कंधार देश के सधिल राजा को धान्य के १२००० कोथले दान में दिये थे ।९ जगडू ने धान्य को वितरण हो सके इसलिये ११२ दानशालाएँ बनवाई थी ।२० जगड़ ने ९,९९,००० धान्य के कोथले तथा अठारह करोड दाम याचकों को दुष्काल के समय दिये थे।२९
सर्ग-७ :- सर्ग का नाम 'त्रिविष्टप प्रापणः' है । इस सर्ग में ३९ श्लोक हैं । तीन वर्ष बाद अच्छी वृष्टि हुई । कवि वर्णन करते है -
"अम्भोधरानतितनीलकण्ठाः स्वगर्जनच्छद्ममदनादाः ।