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इसी तथ्य को कलश ५२ - ५३ में पुन: स्पष्ट किया है
— ज्ञानावरणादि द्रव्यरूप पुद्गलपिण्ड कर्मका कर्ता जीववस्तु है ऐसा जानपना मिथ्याज्ञान है, क्योंकि इस सत्व में कर्ता-कर्म - क्रिया उपचार मात्र से कहा जाता है। भिन्न सत्वरूप है जो जीवद्रव्य - पुद्गलद्रव्य उनको कर्ता-कर्म- क्रिया कहाँ से घटेगा ? '
‘जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्तारूप हैं सो जो पहले भिन्न सत्तापन छोड़कर एक सत्तारूप होवें तो पकि कर्ता-कर्म - क्रियापना घटित हो । सो तो एकरूप होते नहीं, इसलिये जीव - पुद्गलका आपसमें कर्ता-कर्म - क्रियापना घटित नहीं होता । '
जीव अज्ञान से विभाव का कर्ता है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ५८ की टीका में लिखा है
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‘जैसे समुद्र का स्वरूप निश्चल है, वायु से प्रेरित होकर उछलता है और उछलने का कर्ता भी होता है, वैसे ही जीव द्रव्यस्वरूपसे अकर्ता है। कर्म संयोगसे विभावरूप परिणमता है, विभावपनेका कर्ता भी होता है। परन्तु अज्ञानसे, स्वभाव तो नहीं।'
इसलिये
जीव अपने परिणामका कर्ता क्यों है और पुद्गल कर्मका कर्ता क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६१ की टीका में इसप्रकार किया है
' जीवद्रव्य अशुद्ध चेतनारूप परिणमता है, शुद्ध चेतनारूप परिणमता है, इसलिये जिस काल में जिस चेतना रूप परिणमता है उस काल में उसी चेतना के साथ व्याप्य - व्यापकरूप है, इसलिये उस काल में उसी चेतना का कर्ता है। तो भी पुद्गल पिण्डरूप जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं उसके साथ तो व्याप्य - व्यापकरूप तो नहीं है। इसलिये उसका कर्ता नहीं है । '
जीवके रागादिभाव और कर्मपरिणाम में निमित्त - नैमित्तिक भाव क्यों है, कर्ता-कर्मपना क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६८ की टीका में इसप्रकार किया है
' जैसे कलशरूप मृत्तिका परिणमती है, जैसे कुम्हारका परिणाम उसका बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य–व्यापकरूप नहीं है उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पिण्डरूप पुद्गल स्वयं व्याप्य-व्यापक रूप है। तथापि जीवका अशुद्धचेतनारूप मोह, राग, द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्यव्यापकरूप तो नहीं है । '
वस्तुमात्रका अनुभवशीली जीव परम सुखी कैसे है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ६९ को टीका में कहा है
‘जो एक सत्वरूप वस्तु है, उसका द्रव्य - गुण - पर्यायरूप, उत्पाद - व्यय-धौव्यरूप विचार करने पर विकल्प होता है, उस विकल्प के होने पर मन आकुल होता है, आकुलता दुःख है, इसलिये वस्तुमात्र के अनुभवने पर विकल्प मिटता है, विकल्प के मिटने पर आकुलता मिटती है, आकुलता के मिटने पर दुःख मिटता है। इससे अनुभवशीली जीव परम सुखी है।'
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