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इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए कलश ४५ की टीका में लिखा है----
'जिसप्रकार स्वर्ण और पाषाण मिले हुए चले आ रहे हैं और भिन्न भिन्न रूप हैं। तथापि अग्निका संयोग जब ही पाते हैं तभी तत्काल भिन्न भिन्न होते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका संयोग अनादि से चला आ रहा है और जीव कर्म भिन्न भिन्न हैं। तथापि शुद्ध स्वरूप अनुभव बिना प्रगटरूपसे भिन्न भिन्न होते नहीं, जिस काल शुद्ध स्वरूप अनुभव होता है उस काल भिन्न-भिन्न होते हैं।'
विपरीत बुद्धि और कर्म बन्ध मिटने के उपायका निर्देश करते हुए कलश ४७ की टीका में लिखा है---
'जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अंधकार को अवसर नहीं, वैसे शुद्धस्वरूप अनुभव होने पर विपरीत रूप मिथ्यात्वबुद्धिका प्रवेश नहीं। यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि शुद्धज्ञान का अनुभव होने पर विपरीत बुद्धिमात्र मिटती है कि कर्मबन्ध मिटता है ? उत्तर इसप्रकार है कि विपरीत बुद्धि मिटती है, कर्मबन्ध भी मिटता है।'
कर्ता-कर्म का विस्तार करते हुए कलश ४९ की टीका में लिखा है---
'जैसे उपचारमात्र से द्रव्य अपने परिणाममात्र का कर्ता है, वही परिणाम द्रव्यका किया हुआ है वैसे अन्य द्रव्य उपचारमात्र से भी नहीं है, क्योंकि एकसत्व नहीं, भिन्न सत्व है।'
जीव और कर्मका परस्पर क्या सम्बन्ध है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कलश ५० की टीका में लिखा है---
'जीवद्रव्य ज्ञाता है, पुद्गलकर्म ज्ञेय है ऐसा कर्म को ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि वयाप्य-व्यापक सम्बन्ध नहीं है, द्रव्योंका अत्यन्त भिन्नपना है, एकपना नहीं है।' ।
कर्ता-कर्म-क्रिया का ज्ञान कराते हुए कलश ५१ की टीका में पुनः लिखा हैं---
‘कर्ता-कर्म-क्रियाका स्वरूप तो इसप्रकार है, इसलिये ज्ञानावरणादि द्रव्य पिण्डरूप कर्मका कर्ता जीवद्रव्य है ऐसा जानना झूठा है, क्योंकि जीवद्रव्यका और पुद्गलद्रव्यका एक सत्व नहीं; कर्ता-कर्म-क्रिया की कौन घटना ?'
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