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जो समझाते हैं कि जैन सिद्ध का बार बार अभ्यास करने से जो दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है। कविवर उनकी इस धारणाको कलश ३० में ठीक न बतलाते हुए लिखते हैं----
'कोई जानेगा कि जैन सिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है। कविवर उनका नाम अनुभव है सो ऐसा नहीं है। मिथ्यात्वकर्मका रसपाक मिटने पर मिथ्यात्वभावरूप परिणमन मिटता है तो वस्तुस्वरूपका प्रत्यक्षरूप से आस्वाद आता है, उसका नाम अनुभव है।'
विधि प्रतिषेधरूपसे जीवका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट लरते हुए कलश ३३ की टीका में बतलाया है--
'शुद्ध जीव है। टंकोत्कीर्ण है, चिद्रूप है ऐसा कहना विधि कही जाती है। जीवका स्वरूप गुणस्थान नहीं , कर्म-नोकर्म जीव नहीं, भावकर्म जीवका नहीं ऐसा कहना प्रतिषेध कहलाता है।'
हेय उपाधेय का ज्ञान कराते हुए कलश ३६ की टीका में कहा है--- 'जितनी कुछ कर्म जाति है वह समस्त हेय है। उसमें कोई कर्म उपादेय नहीं है।'
इसलिये क्या कर्तव्य है इस बात को स्पष्ट करते हुए उसी में बतलाया है---
'जितने भी विभाव परिणाम हैं वे सब जीव के नहीं हैं। शुद्ध चैतन्यमात्र जीव है ऐसा अनुभव कर्त्तव्य है।'
कलश ३७ की टीका में इसी तथ्य को पुनः स्पष्ट करते हुए लिखा है----
‘वर्णादिक और रागादि विद्यमान दिखाई पड़ते हैं। तथापि स्वरूप अनुभवने पर स्वरूप मात्र है , विभाव-परिणतिरूप वस्तु तो कुछ नहीं।'
कर्म बन्ध पर्याय से जीव कैसे भिन्न है इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए कलश ४४ की टीका में कहा है---
'जिसप्रकार पानी कीचड़ के मिलने पर मैला है। सो वह मैलापन रंग है, सो रंग को अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो पानी है। उसीप्रकार जीव की कर्मबन्ध पर्यायरूप अवस्था में रागादि भाव रंग हैं, सो रग्ह को अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो चेतन धातुमात्र वस्तु है। इसीका नाम शुद्ध स्वरूप अनुभव जानना जो सम्यग्दृष्टि के होता है।'
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