Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 15
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इसी तथ्य को कलश ८ में स्वर्ण और वानभेदको दृष्टान्तरूप में प्रस्तुत कर कविवर ने और भी आलंकारिक भाषा द्वारा समझाया है। यथा----- ‘स्वर्णमात्र न देखा जाय, बानभेदमात्र देखा जाये तो बान भेद है; स्वर्ण की शक्ति ऐसी भी है। जो बान भेद न देखा जाय, केवल स्वर्णमात्र देखा जाय तो बानभेद झूठा है। इसीप्रकार जो शुद्ध जीव वस्तुमात्र न देखी जाय, गुणपर्याय मात्र या उत्पाद-व्यय-धौव्य-मात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय हैं तथा उत्पाद-व्यय-धौव्य हैं; जीव वस्तु ऐसी भी है। जो गुण पर्याय भेद या उत्पादव्यय-धौव्य भेद न देखा जाय, वस्तु मात्र देखी जाय तो समस्त भेद झूठा है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है।' उदयति न नयश्री: [क . ९]---- अनुभव क्या है और अनुभवके कालमें जीवकी कैसी वस्था होती है उसे स्पष्ट करते हुए कविने जो वचन प्रयोग किया है वह अद्भुत है। रसास्वाद कीजिए 'अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष ज्ञान है अर्थात् वेद्य-वेदकभाब से आस्वादरूप है और वह अनुभव परसहाय से निरपेक्ष है। ऐसा अनुभव यद्यपि ज्ञान विशेष है तथापि सम्यक्त्व के साथ अविनाभूत है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि के होता है, मिथ्यादृष्टि के नहीं होता है ऐसा निश्चय है। ऐसा अनुभव होने पर जीव वस्तु अपने शुद्धस्वरूप को प्रत्यक्ष रूप से आस्वादती है, इसलिये जितने काल तक अनुभव होता है उतने काल तक वचन व्यवहार सहज ही बन्द रहता है।' इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं---- ‘जो अनुभव के आने पर प्रमाण-नय-निक्षेप ही झूठा है। वहाँ रागादि विकलपोंकी क्या कथा। भावार्थ इसप्रकार है-जो रागादि तो झूठे ही हैं, जीव स्वरूप से बाह्य हैं। प्रमाण-नय-निक्षेप बुद्धिके द्वारा एक ही जीवद्रव्य का द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद्-व्यय-धौव्य भेद किया जाया है, वे समस्त झूठे हैं। इन सबके झूठे होने पर जो कुछ वस्तुका स्वाद है सो अनुभव है।' इसी तथ्य को कलश १० की टीका में इन शब्दों में व्यक्त किया है----- ‘समस्त संकल्प-विकल्प से रहित वस्तुस्वरूपका अनुभव सम्यक्त्व है।' रागादि परिणाम अथवा सुण-दुःख परिणाम स्वभाव परिणति से बाह्य कैसे हैं इसका ज्ञान कराते हुए कलश ११ की टीका में कविवर कहते हैं--- 'यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि जीवको तो शुद्धस्वरूप कहा और वह ऐसा ही है परन्तु राग-द्वेष मोहरूप परिणामोंको अथवा सुख-दुःख आदि रूप परिणामों को कौन करता है, कौन भोगता है ? उत्तर इस प्रकार है कि इन परिणामोंको करे तो जीव करता है और जीव भोगता है। परन्तु यह परिणति विभावरूप है, उपाधिरूप है। इस कारण निज स्वरूप विचारने पर यह जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा कहा जाता है।' Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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