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व्यक्तियो का निर्माण करना है जो स्वचेतना की स्वतन्त्रता को जी सके । स्वचेतना की किंचित भी परतन्त्रता समयसार को मान्य नही है | चेतना की अतुलनीय गहराइयो मे व्यक्ति को लीन करना समयसार को इष्ट है । चेतन - अस्तित्व के गहनतम स्तरो को व्यक्ति छ सके और परतन्त्रता को त्यागने की प्रेरणा प्राप्त कर सके - यही समयसार का अपूर्व सदेश है । जन्म-जन्मो से व्यक्ति ने इन्द्रियो की परतन्त्रता को स्वीकार कर रखा है । इन्द्रिय विषय ही सदैव उसे प्राकर्षित करते रहते हैं । इन्द्रियपुष्टि का जीवन ही उसे स्वाभाविक लगता है । वाह्य विषयो मे जकड़ा हुआ ही वह अपनी जोवन - यात्रा चलाता है । अपने अस्तित्व की स्वतन्त्रता का उसे कोई भान ही नही हो पाता है । विषयातीत अनुभव उसके लिए दुर्लभ रहता है । समयसार का कहना है कि चेतना की अद्वितीय स्वतन्त्रता, उसकी समतामयी स्थिति की गाथा व्यक्ति के लिए सुलभ नही है ( 1 ) । व्यक्ति इन्द्रिय-विषयो से इतना आत्मसात् किए हुए होता है कि विषयो की ही वार्ता उसको रुचिकर लगती है । वस्तुओ और व्यक्तियो से बधा हुआ ही वह जीता जाता है । चेतना को वस्तु और व्यक्तियो से बघना स्वाभाविक प्रतीत होता है । इस कारण व्यक्ति को चेतना बाह्य का ही आलिंगन करती रहती है और अपनी स्वतन्त्रता को खोकर मानसिक तनाव से ग्रस्त बनी रहती है । यही व्यक्ति की अज्ञान अवस्था है ।
यहा यह ध्यान देने योग्य है कि समयसार व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाना चाहता है, जिससे वह चेतना / आत्मा को परतन्त्र बनानेवाले कारणो को समझ सके । सच तो यह है कि आत्मा की परतन्त्रता मानसिक तनाव मे ही अभिव्यक्त होती है । तनाव मुक्ति आत्म - स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति है । समयसार का
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समयसार