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निरर्थक होता है (113)। अनाध्यात्मवादी के जीवन में (सम्यक्) जान उत्पन्न नहीं होता है। (सम्यक्) ज्ञान के बिना चारित्र में विशिष्टताएँ उत्पन्न नहीं होती हैं। चारित्र-रहित व्यक्ति के लिए कर्मों से छुटकारा संभव नहीं है और कर्मों से छुटकारे-रहित व्यक्ति के लिए जीवन में समता घटित नहीं होती है (114)। सच है कि क्रिया-हीन (चारित्र-हीन) ज्ञान निकम्मा होता है, तथा अज्ञान से की हुई क्रिया भी निकम्मी होती है। प्रसिद्ध है कि आंख से देखता हुआ लंगड़ा व्यक्ति आग से भस्म हुआ और पंरों से दौड़ता हुआ भी अन्धा व्यक्ति प्राग से भस्म हुआ (115) । अतः ज्ञान और क्रिया (चारित्र) का संयोग सिद्ध होने पर फल प्राप्त होता है क्योंकि ज्ञान अथवा क्रियारूपी एक पहिए से साधनारूपी रथ नहीं चलता है। जब अंधा
और लंगड़ा दोनों जंगल में मिले तो आग से बचकर नगर में गए (116)। इसी प्रकार ज्ञान और चारित्र के संयोग से ही मनुष्य साधना मार्ग पर आगे बढ़ता है। व्यक्त के जीवन में सक्रिया (चारित्र) के अभाव के कारण ही ज्ञान चाही गई शांति को प्राप्त कराने वाला नहीं होता है, जैसे कि ज्ञान-मार्ग के जानकार व्यक्ति को जो प्रयत्नरहित होता है इच्छित स्थान की ओर ले जाने वाला नहीं होता है या जैसे कि वायुरहित नौका व्यक्ति को इच्छित स्थान की ओर ले जाने वाली नहीं होती है (134)। अतः स्पष्ट है कि ज्ञानपूर्वक चारित्र ही श्रेष्ठ होता है और चारित्र सहित ज्ञान ही कार्यकारी
होता है।
यहां यह समझना चाहिए कि ज्ञान एक शब्दातीत समझ है, उसका शब्दों की शिक्षा और शब्द-प्रयोग में प्रवीणता से कोई विशेष संबंध नहीं है। इसीलिए कहा है कि जो चारित्र-युक्त है, वह अल्प शिक्षित होने पर भी विद्वान् को मात कर देता है, किन्तु जो चारित्रहीन है उसके लिए बहुत विद्वान् होने से भी क्या लाभ है, (136) ? चयनिका ]
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