Book Title: Samansuttam Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 165
________________ अपभ्रंश । बहिरप्पा (बहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश । चरिकन (छंड) संक तिविहेण (तिविह) 3/1। झाइन्नइ (झाप) व कर्म 3/1 सक।। । परमप्पा (परमप्प) 1/1 । उबइठें (उवइट्ठ) भूक 1/1 पनि । जिपरिवेहि (जिणवरिंद) 3/21 105 परसमस्वमगंध [(अरसं)+ (अव)+(प्रगंध)] परसं (अरस) 1/1 वि अरूवं (अरूव) 1/1 वि अगंध (अगंध) 1/1 वि । अब्बत (अव्वत्त) 1/1 वि । चेवणागुनमसइं [(चेदणागुणं)+(असई)] चेदणागुणं चिदणागुण) 1/1 वि प्रसद्द (असद्द) 1/1 वि । बाण (जाण) विधि 2/1 सक' । अलिंगरगहणं [(प्रलिंग)-(ग्गहण) 1/1] | जीवमणि दिसंठा [(जीव)+(प्रणिट्ठि) (संठाणं)] । जीवं (जीव) 1/1 [(मणिट्ठि) भूक अनि-(संठाण) 1/1] | . 106 सुहपरिणामो [(सुह) वि-(परिणाम) 1/1] | पुग्णं (पुण्ण) 1/11 असुहो (असुह) 1/1 वि । पाव (पाव) मूल शब्द 1/1 | ति (अ) = इस प्रकार । भणियमन्नेसु [(भाणियं) + (अन्नेसु)] भणियं (भण) भू.कृ. 1/1। अन्नेसु (अन्न) 7/2। परिणामो (परिणाम) 1/11 सनगयो [(ण) + (अन्नगदो)]। दुक्सक्खयकारणं [(दुक्ख)-(क्खय)(कारण) 1/1] । समये (समय) 7/1। 1. किसी भी कारक में मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण पृष्ठ 517). 107 पुणे (पुण्ण) 2/11 पि (म) = ही । जो (ज) = 1/1 सवि । समिच्छवि (समिच्छ) व 3/1 सक । संसारो (संसार) 1/1। तेण (त) 3/1 स । ईहिवों (ईह) भूक 1/1। होवि (हो) व 3/1 अक । पुग्णं (पुण्ण) 1/11 सुगईहेर्नु [(सुगइ सुगई')-(हेदु) 1/1] | पुग्णसएणेव [(पुण्ण) + 1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाते है (हेम प्राकृत व्याकरणः 1-4)। 1 132 ] [ समणसुतं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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