Book Title: Ratribhojan Tyag Avashyak Kyo
Author(s): Sthitpragyashreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 19
________________ (2) निषेध भी बतलाये गये हैं। आहार में खाने योग्य क्या, अखाद्य क्या, कौन - सा आहार कब योग्य, कब अयोग्य इत्यादि विस्तृत चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है। सामान्यतः मनुष्य जिस तरह का खाता है उसे उसी तरह के विचार आते हैं, अतः मनुष्य का आहार सात्त्विक होना चाहिए, न्याय - नीति, सदाचार एवं ईमानदारी से अर्जित होना चाहिए। जब जीवन में धर्मप्रियता और न्यायप्रियता होती है तब अन्याय, कपट, छलवृत्ति के दोष नहीं पनपते, व्यक्ति शान्तिपूर्वक जीवन यापन करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें तो पेट भरने से मतलब है इसलिए जो मिले ठीक है, टेंशन नहीं करते। पर सोचिए, हमारा पेट कोई कूड़ेदान नहीं, जिसमें हम कभी भी कुछ भी डालते रहें। लोलुपी मनुष्य बिना विचार किए स्वाद का आनन्द पाने के लिए कुछ भी खा लिया करता है, क्योंकि उसका एक ही ध्येय होता है- “खाओपीओ- मौज करो। " इसके विपरीत बुद्धिमान पुरुष हितकारी, लाभकारी एवं पथ्यकारी भोजन को प्रमुखता देते हैं। शुद्ध व सात्त्विक आहार से ही वैचारिक निर्मलता, बौद्धिक पवित्रता, आत्मविश्वास, धीरता, सदाचारिता आदि सद्गुणों की प्राप्ति होती है। शाकाहार से शरीर निरोग, आत्मा निर्दोष, मृत्यु समाधिमय और परलोक सद्गतिमय बनता है। आहार कब हो? आहार कैसा हो, इसके साथ यह तथ्य भी बहुत महत्त्व रखता है कि आहार कब हो? क्योंकि असमय में किया गया महान् कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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