Book Title: Ratribhojan Tyag Avashyak Kyo
Author(s): Sthitpragyashreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ (31) दृष्टि से अत्यधिक आरम्भ-सभारम्भ करने वाला जीव नरकगामी होता है इसलिये रात्रिभोजन को नरक का प्रथम द्वार कहा गया है। जो मानव अल्प आरम्भी होता है वह नरकगति को प्राप्त नहीं होता है। इसलिये पाप से डरने वालों को एवं उत्तम प्रकार के साधकों को कम से कम रात्रि को चौविहार और दिन को नवकारसी का पच्चक्खाण अनिवार्यतः करना चाहिये। यह ज्ञातव्य है कि अठारह प्रकार के पाप स्थानों में दसवाँ पापस्थान 'राग' है। आगमों में राग को भी पाप कहा है। रात्रिभोजन में राग की अधिकता होती है। रात्रिभोजन करने वालों को दिन की अपेक्षा रात के भोजन में अधिक आनंद आता है। वे मजा ले लेकर चावपूर्वक रात का भोजन करते हैं। वे कहते हैं- 'रात को खाओ-पीओ, दिन को आराम करो'। इस प्रकार राग-भाव पूर्वक रात्रिभोजन करने से पापकर्मों का निकाचित बंध होता है, जिसका पूरी तरह भुगतान किये बिना कभी छुटकारा नहीं होता। रात्रिभोजन से अगले जन्म में ही नहीं, इस जन्म में भी दुर्गति होती है। रात्रिभोजों में कई बार जहरीले जीव-जन्तु छिपकली आदि गिर जाने से सारा भोजन जहरीला बन जाता है। उस जहरीले भोजन का सेवन करने वाले सब अस्वस्थ हो जाते हैं और फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। ऐसी घटनाएँ आये दिन अखबारों में छपती रहती हैं। जिन्हें अपना जीवन प्रिय हो उन्हें अपने एवं अपने परिवार के लिए ही सही रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। मेवाड़ के एक गाँव में एक राजकर्मचारी के यहाँ महाराज (रसोइया) रोटी बना रहे थे। एक दिन रात्रि के समय भोजन में भिंडी का शाक बनाया गया। भिंडियाँ मसाला भर के समूची ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66