Book Title: Ratribhojan Tyag Avashyak Kyo
Author(s): Sthitpragyashreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 29
________________ (12) जितना पाप लगता है; उतना पाप एक कुवाणिज्य (खोटा धंधा) करने से लगता है। एक सौ चवालीस भव तक कुव्यापार करने से जो पाप लगता है, उतना पाप किसी पर एक बार झूठा इल्जाम लगाने से लगता है। एक सौ इक्यावन भव तक झूठा दोषारोपण करने से जितना पाप लगता है; उतना पाप एक बार परस्त्रीगमन से लगता है। एक सौ निन्यानबे भव तक परस्त्रीगमन करने से जितना पाप लगता है; उतना पाप एक बार के रात्रिभोजन से लगता पं. आशाधर जी ने 'सागारधर्मामृत'१४ में रात्रिभोजन त्याग के विषय में लिखा है अहिंसाव्रत रक्षार्थ मूलव्रत विशुद्धये । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् ।। अर्थात् अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए एवं मूलगुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन-वचन-काय से जीवन पर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए। चार प्रकार के आहार कौन-कौन से हैं? इसे समन्तभद्रस्वामी ने अपनी कृति 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार१५ में स्पष्ट किया है। अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ।। जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि में अन्न-दाल, भात कचौड़ी, पूड़ी आदि, पान-पानी, दूध, शर्बत आदि, खाद्यलड्डू आदि और लेह्य-रबड़ी, मलाई, चटनी आदि पदार्थों को नहीं खाता है, वह रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमाधारी श्रावक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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