Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ श्रीः सूचना श्रीहेमचंद्र सूरि इस कलिकालमें बड़े ही प्रभावशाली विद्वान् हुए यह बात प्राय सर्वसाधारण है । इस समय भी उनकी कीर्ति सारे भूमंडलपर फेली हुई है। उनका समय ईखी सन् १२०० के लगभगका निर्णीत हुआ है । उनके भक्तोंमेंसे कुमारपाल राजा एक प्रधान भक्त था । प्राय उसीके रक्षित भूमण्डलको वे सदा शोभित करते रहे। श्रीहेमचन्द्र सूरिने कई लक्ष श्लोकप्रमाण ग्रन्थोंकी रचना की। उनमेंसे कुछ उपलब्ध प्रधान ग्रन्थोंके नाम निम्नलिखित का है।-योगार्णव, कर्मग्रन्थ प्राकृत, अनेकार्थकोश, अनेकार्थशेष, अभिधानचिन्तामणि, अलङ्कारचूड़ामणि, उणादिसूत्रवृत्ति, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, छन्दोनुशासनवृत्ति, देशीनाममाला सवृत्ति, धातुपाठ सवृत्ति, धातुपारायण सवृत्ति, धातुमाला, नाममाला, नाममालाशेष, निघण्टुशेष, बलाबलसूत्रबृहद्वृत्ति, बालभाषाव्याकरणसूत्रवृत्ति, विभ्रमसूत्र, शब्दानुशासन सवृत्ति, शेपसंग्रह, शेषसंग्रहसारोद्धार इत्यादि मुख्य ग्रन्थ है। जिसपर यह स्याद्वादमञ्जरीनामक वृत्ति वनाई गई है वह यह अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक बत्तीस श्लोकोंकी मूलस्तुति भी इन्ही श्रीहेमचंद्रकी बनाई हुई है। इसमें अंतिम तीर्थकर श्रीमहावीर खामीकी स्तुति के बहानेसे अन्य दर्शनोंका युक्तिपूर्वक निराकरण किया गया है । इस स्तुतिका प्रमाण बत्तीस लोकमात्र होनेपर भी यह अत्यंत मनोज्ञ तथा रोचक है । ___ इसकी टीकाका नाम स्याद्वादमञ्जरी है और इस टीकाके कर्ता श्रीमल्लिपेण सूरि है । श्रीमल्लिघेण सूरिने अपने समयका निर्णय ग्रन्थके अंतमें खयं ही लिखा है । उनका यथासंभव परिचयभी उसी अंतकी प्रशस्तिसे हो सकता है । स्याद्वादमञ्जरीमेंT अन्य दर्शनोंकर माने हुए एकान्तरूप विषयोंका उपपादनपूर्वक निराकरण तथा जैनमतके विषयोंका मंडन किया गया है। यह ग्रन्थ न्यायकी शैलीसे परिपूर्ण है । जैसा कुछ अनुमानादि प्रमाणोंद्वारा न्याय शैलीमें खंडन मंडन होता है उसीप्रकार इसमें भी युक्तियोंका विशेष आदर किया गया है। स्थान स्थानपर सांख्य आदि अन्य दर्शनोंका मंडन भी यथाशास्त्र खूब ही किया है

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 443