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१८७६ में लिखा गया था जिसमें उक्त महाराजाका जीवन-वृत्त है । रघुवरजसप्रकास प्रकाशित रूपमें आपके समक्ष है । इनके अतिरिक्त कविके रचे हुए फुटकर गीत अधिक संख्या में उपलब्ध होते हैं जो कविकी विशिष्ट काव्य-प्रतिभा एवं प्रौढ ज्ञानका परिचय देते हैं ।
रघुवरजसप्रकास
प्रस्तुत ग्रंथ रघुवरजसप्रकास राजस्थानी भाषाका छंद - रचनाका उत्कृष्ट लाक्षणिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व हिन्दीके छंदोंका अपनी मौलिक रचनामें पूर्ण विवेचन है ।
ग्रंथ में कविने मुख्य विषय छंद-रचनाके लक्षणों व नियमोंका बड़ी सरल व प्रसादगुरगपूर्ण भाषामें वर्णन किया है । छंदोंके वर्णनमें कविने अपनी रामभक्तिका पूर्ण परिचय दिया है । राम-गुणगान ही कविका मुख्य ध्येय था । अतः छंद-रचनाके लक्षणोंके साथ-साथ रामगुण-वर्णन करते हुए कविने एक पंथ दो काजकी कहावतको पूर्ण रूपसे चरितार्थ किया है।
प्रकाशित रीति ग्रन्थ रघुनाथरूपकमें लाक्षणिक वर्णनके अतिरिक्त उदाहरणके गीतोंमें रामकथाका ही सहारा लिया है । इसमें रामायणकी भांति रामगाथा क्रमबद्ध चलती है । परन्तु किसनाजीने अपने ग्रन्थ में मुक्तक रूपसे राममहिमाका वर्णन किया है। इसमें कोई कथाका क्रम नहीं है। कविने रीतिके अनुसार ग्रंथको पांच भागोंमें विभाजित किया है। छंद-लक्षण जैसे अरुचिकर विषयको अत्यंत सरल बना कर ग्रन्थको पर्ण प्रसादगुणयुक्त कर दिया है । ग्रंथका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -
प्रथम प्रकरण में मंगलाचरण, गरणागण, गणागणदेव, गणागरणका फलाफल, गण मित्र शत्रु, दोषादोष, आठ प्रकारके दग्धाक्षर, गुरु, लघु, लघु गुरुकी विधि, मात्रिक गण, मात्रिक गणोंके भेदोपभेद व उनके नाम तथा छंदशास्त्रके आठ प्रत्ययों-१ प्रस्तार, २ सूची, ३ उद्दिष्ट, ४ नष्ठ, ५ मेरु, ६ खंडमरु, ७ पताका, ८ मवर्कटिका संक्षिप्त वर्णन व विवेचन किया गया है।
- द्वितीय प्रकरणमें मात्रिक छंदका वर्णन किया गया है । कविने इस प्रकरण में कुल २२४ मात्रिक छंदोंके लक्षण देकर उनके उदाहरण भी दिए हैं। लक्षण कहीं-कहीं पर प्रथम दोहोंमें या चोपईमें दिये गये हैं। फिर छंदोंके उदाहरण दिये हैं। कहीं-कहीं लक्षण और छंद सम्मिलित ही दे दिये गये हैं। इस प्रकरणमें
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