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१५६२ में हुआ था । दुर्भाग्य से बाल्यावस्था में ही पितृ-प्रेमसे वंचित हो गये' । अत: बगड़ी गाँव के ठाकुर श्री प्रतापसिंहजी सूंडाने इनका पालन-पोषण किया और वयस्क होने पर अपने यहां कार्य पर रख लिया । दुरसाजी अपनी काव्य प्रतिभा के कारण शीघ्र ही विख्यात हो गये और दिल्ली के सम्राट अकबर के दरबार में भी अच्छा सम्मान प्राप्त किया ।
दुरसाजी राजस्थानके बहुत लोकप्रिय और यशस्वी कवि हुए हैं । ग्रापने कविताके नामसे बहुत सम्मान व धन प्राप्त किया ।
काव्य-रचना के दृष्टिकोणसे भी दुरसाजीका स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं । इनके लिखे तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं - १. बिरुद - छिहत्तरी, २. किरतारबावनी और ३. श्रीकुमार ग्रज्जाजीनी भृधर मोरीनी गजगत । इन ग्रंथोंके अतिरिक्त दुरसाजी के लिखे पचासों डिंगल गीत उपलब्ध होते हैं ।
दुरसाजी के दो स्त्रियां थीं जिनसे चार पुत्र हुए। ये अपने सबसे छोटे पुत्र किसनाजीके साथ पांचेटिया में ही रहते थे । वहीं सं० १७१२ में इनका देहावसान हुआ । इन्हीं दुरसाजीकी वंश-परम्परा में किसनाजीने मारवाड़ राज्यांतरगत पांचेटिया ग्राममें जन्म लिया जिसका वंश क्रम इस प्रकार है
१ दुरसौ, २ किसोजी,
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३ महेस,
४ खुमान,
५ साहिबखांन,
६ पनजी
७ दूल्हजी, ८किसनोजी,
इस प्रकार कवि-परिचय के प्रारम्भ में दिए हुए छप्पयके अनुसार रघुवरजसप्रकासके रचयिता सुकवि किसनाजी आढ़ाका जन्म दुरसाजी आढ़ाकी आठवीं पुश्त में (पीढ़ी में ) दूल्हाजी नामक कविके घर हुआा। दूल्हजी के कुल छः पुत्र थे जिनमें किसनोजी तीसरे थे । इनके जीवनके सम्बंध में श्रीमोतो
१ नोट- इनके पिताने सन्यास ले लिया था ।
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