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४ लखपपिंगल-इसमें गीत-रचनाके लक्षण तो नहीं हैं परंतु ग्रन्थ के अंतमें चौबीस भिन्न-भिन्न गीतोंकी जाति व गीत दिए गए हैं।
५ कविकुलबोध- इसमें चौरासी प्रकारके गीत, अट्ठारह उक्तियाँ, बाईस जथाएं आदिका बड़ा विशद् वर्णन है । यह अत्युत्तम लाक्षणिक ग्रंथ है।
६ रघुनाथरूपक-यह प्रकाशित ग्रन्थ है । इसमें बहत्तर प्रकारके गीतोंका वर्णन है।
७ डिंगल-कोश-यह ग्रन्थ प्रधान रूपसे पद्यबंध शब्दकोश है। इसमें भी पंद्रह गीतोंके लक्षण दिए हैं और उदाहरणके गीतोंमें डिंगलके पर्यायवाची कोशके शब्दोंका वर्णन है।
८ रण-पिंगल-यह छंदशास्त्रका बृहद् लाक्षणिक ग्रंथ है। इसके तीन भाग हैं। इसके तृतीय भागमें भिन्न-भिन्न प्रकारके तीस गीतोंके लक्षण व उदाहरण दिए गये हैं। अधिकांश रघुनाथरूपकके ही गीत इसमें हैं। यह ग्रंथ प्रकाशित है किन्तु अप्राप्य है।
९ रघुवरजसप्रकास-प्रस्तुत ग्रन्थ रघुवरजसप्रकासमें ११ प्रकारके गीतोंके लक्षण आदिका विस्तृत वर्णन है। केवल गीतोंका ही वर्णन नहीं, गोतोंके विभिन्न अंगोंका वर्णन भी बड़े ही सुन्दर एवं विस्तृत ढंगसे किया गया है। गीतोंके ग्यारह प्रकारके दोष, गीतोंमें वैणसगाईके प्रयोगका महत्त्व आदिका सुन्दर वर्णन है । गीतोंमें वैणसगाईके प्रयोगके जो उदाहरण दिए गये हैं वे कविको रचनाके महत्त्वको द्विगुणित कर गंथकारकी काव्य-प्रतिभाका परिचय देते हैं।
छंद शास्त्रमें चित्र काव्यका अपना एक विशेष स्थान है। साहित्यकारोंने इसे एक स्वतन्त्र रूपसे अलंकार माना है जो शब्दालंकारका एक भेद माना गया है। संस्कृत व व्रज भाषामें चित्र काव्य पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होता है परन्तु राजस्थानी (डिंगल) गीतोंमें चित्र काव्यका उल्लेख नहीं मिला। अद्यावधि डिंगल गीतोंके लाक्षणिक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं-उनमें किसी में भी चित्रकाव्य सम्बन्धी विवरण नहीं है; परन्तु रघुवरजसप्रकासमें एक 'जाळीबंध वेलियो सांणोर' गीतका चित्र-काव्यके रूप में उदाहरण मिला है। मेरे निजी संग्रहमें इस जाळीबंध गीतके चित्र बने हुए हैं । एक-दो उदाहरण प्राचीन भी मिलते है । इन उदाहरणोंसे पता चलता है कि डिंगल गीतमें भी चित्रकाव्यकी रचना प्रारंभ हो गई थी।
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