Book Title: Punchaastikaai Sangrah
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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१८० ]
પંચાસ્તિકાયસંગ્રહ
[ भगवान श्री.छु
गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।।१२९ ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा।।१३०।।
यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः। परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः।। १२८ ।। गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायते। तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा।। १२९ ।। जायते जीवस्यैवं भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा।। १३०।। इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन निग्धः परिणामो भवति।
ગતિપ્રાસને તન થાય, તનથી ઇંદ્રિયો વળી થાય છે, એનાથી વિષય ગ્રહાય, રાગદ્વેષ તેથી થાય છે. ૧૨૯. એ રીત ભાવ અનાદિનિધન અનાદિસાંત થયા કરે. સંસારચક્ર વિષે જીવોને-એમ જિનદેવો કહે ૧૩૦
अन्वयार्थ:- [ यः] ४ [ खलु ] ५२५२ [ संसारस्थः जीवः ] संसा२स्थित ७५ छ [ ततः तु परिणामः भवति] तनाथी ५२९॥म थाय छ (अर्थात, तेने स्नि५ ५२९॥म थाय छे), [परिणामात् कर्म ] परिमथी धर्भ मने [कर्मणः ] थी [गतिषु गतिः भवति ] गतिमोमi ગમન થાય છે.
[गतिम् अधिगतस्य देहः ] तितने हे थाय छ, [ देहात् इन्द्रियाणि जायंते ] हेच्थी छद्रियो थाय छ, [ तैः तु विषयग्रहणं] द्रियोथी विषय यह भने [ ततः रागः वा द्वेषः वा] विषयहाथी २॥२॥ अथवा द्वेष थाय छे.
[एवं भाव:] मे प्रमाणे भाव, [ संसारचक्रवाले ] संसारयम [जीवस्य ] पने [अनादिनिधनः सनिधन: वा] अनादि-अनंत अथवा अनाहि-सात [ जायते ] थय। २. छ[इति जिनवरैः भणित:] सेम निवरोमे ऽयुं छे.
ટીકા:- આ લોકમાં સંસારી જીવથી અનાદિ બંધનરૂપ ઉપાધિના વશે સિગ્ધ
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