Book Title: Prakrit Vidya 1999 07 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 4
________________ डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रो० ( डॉ० ) प्रेमसुमन जैन सम्पादक- मण्डल पं० महावीर शास्त्री श्री कुन्दकुन्द भारती ( प्राकृत भवन ) 18 - बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011)6564510 फैक्स (011) 6856286 प्रबन्ध सम्पादक डॉ० वीरसागर जैन 002 पं० (i) शेषं शौरसेनीवत् ।। 8 /4/302 ।। Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510 Fax (91-11) 6856286 “नामाख्यातोपसर्गेषु, निपातेषु च संस्कृता । प्राकृती शौरसेनी च, भाषा यत्र त्रयी स्मृता ।। ” डॉ० उदयचन्द्र जैन जैन उपाध्ये, एम०ए० (प्राकृत) जयकुमार अर्थ:—नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपातों में संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी ये तीन भाषायें थी । अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । -(आचार्य रविषेण, 'पद्मपुराण', 24 / 11 ) (i) प्रकृतिः शौरसेनी ।। 10/2।। अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी । स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची लक्षणं प्रवर्तयितव्यम् । (ii) प्रकृतिः शौरसेनी।। 11/2 ।। मागध्यां यदुक्तं, ततोऽन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। (वररुचिकृत 'प्राकृतप्रकाश' से) (ii) शेषं शौरसेनीवत् ।। 8/4/323।। पैशाच्यां यदुक्तं, ततोऽन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । (iii) शौरसेनीवत् ।। 8/4/446।। अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति । अपभ्रंश-भाषायां प्रायः शौरसेनी - भाषा - तुल्यं कार्यं जायते; शौरसेनी - भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते । (हमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण' से) प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 199Page Navigation
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