Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ उन्नत स्वरूप को धारण करनेवाली ! फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरपति विद्याधर-इन्द्र-देवयक्ष आदि सभी से सामूहिकरूप से स्तवनीये ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 4 ।। कंकेलि-पल्लव-विनिन्दक-पाणियुग्मे ! पद्मासने ! दिवसपद्म-समानवक्त्रे! जैनेन्द्रवक्त्र-भवदिव्य-समस्तभाषे! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।5।। अर्थ :- हे अशोकवृक्ष के सुकुमार-किसलय (नवीन पत्र) को तिरस्कृत करनेवाले करतल को धारण करनेवाली ! पद्म पर विराजमाने ! दिन में विकसित होनेवाले कमल के समान मुखशोभा-विलसिते ! भगवान् जिनेन्द्र के मुख से समुत्पन्न दिव्य-ध्वनि को समस्तरूप से भाषण करने में निपुणे ! हे देवि ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 5 ।। मंजीरकोत्कनक-कंकण-किंकिणीनां ! काञ्च्याश्च झंकृतरवेण विराजमाने!. सद्धर्मवारिनिधिसन्तत-वर्धमाने ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।6।। अर्थ :- हे देवि ! आप मंजीर (नपुर) खनकते हुए कंकण एवं किकिंणी और कांची (कटिसूत्र) से झंकृतस्वर से विराजमान हैं। सद्धर्मरूपसमुद्र से सिंचन से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हैं अथवा सद्धर्मरूप समुद्र के समान निरन्तर वर्धिष्णु हैं अथवा सद्धर्मसमुद्र में निरन्तर समृद्धि को प्राप्त करनेवाली हैं । हे देवि ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।।6।। अर्धन्दमण्डित जटाललितस्वरूपे ! शास्त्रप्रकाशिनि ! समस्तकलाधिनाथे ! चिन्मुद्रिकाजपशराभयमुद्रिकांके ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।7।। अर्थ :- हे देवि ! आपकी केशराशि में अर्धचन्द्रमा का मुकुट लगा है, जिससे आपका रूप अत्यधिक ललित हो उठा है। हे अम्बा ! आप शास्त्रों के गूढ़तत्त्व की प्रकाशयित्री हैं। सम्पूर्ण कलाओं की स्वामिनी हैं। आप ज्ञानमुद्रा, जपमाला, शर और अभयमुद्रा से शोभित हैं। हे वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 7।। डिण्डीरपिण्डहिमशंखसिताभ्रहारे ! पूर्णेन्दुबिम्बरुचि-शोभित-दिव्यगात्रे! चाञ्चल्यमान मृगशाव-ललामनेत्रे ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।8।। अर्थ :- हे देवि ! आपके गले में विराजमान हार (पुष्पहार अथवा मुक्तामाला) समुद्रफेन, तुषार (बर्फ), शंख और कपूर के समान श्वेत कान्ति है। आपका दिव्य-शरीर पूर्णिमा के चन्द्रबिंब की किरणों के समान दिव्य (तैजस्) हैं, आपके नेत्र चंचल-मृगशिशु के नेत्रों के समान मंजुल (लालम–सुन्दर) हैं। हे वागेश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।।8।। सरस्वत्या प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवा: । तस्मान्निश्चलभावेन पूजनीया सरस्वती।।9।। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 005 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 220