Book Title: Prakrit Sahitya Ka Itihas Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan View full book textPage 7
________________ भूमिका भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में प्राकृत का पठन-पाठन हो रहा है लेकिन उसका जैसा चाहिये वैसा आलोचनात्मक क्रमबद्ध अध्ययन अभी तक नहीं हुआ। कुछ समय पूर्व हर्मन जैकोबी, वेबर, पिशल और शूबिंग आदि विद्वानों ने जैन आगमों का अध्ययन किया था, लेकिन इस साहित्य में प्रायः जैनधर्म संबंधी विषयों की चर्चा ही अधिक थी इसलिये 'शुष्क और नीरस समझ कर इसकी उपेक्षा ही कर दी गई। जर्मन विद्वान् पिशल ने प्राकृत साहित्य की अनेक पांडुलिपियों का अध्ययन कर प्राकृत भाषाओं का व्याकरण नामक खोजपूर्ण ग्रंथ लिखकर इस क्षेत्र में सराहनीय प्रयत्न किया । इधर मुनि जिनविजय जी के संपादकत्व में सिंघी सीरीज़ में प्राकृत साहित्य के अनेक अभिनव ग्रंथ प्रकाशित हुए। मारत के अनेक सुयोग्यं विद्वान् इस दिशा में श्लाघनीय प्रयत्न कर रहे हैं जिसके फलस्वरूप अनेक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्वपूर्ण उपयोगी ग्रंथ प्रकाश में आये हैं। लेकिन जैसा ठोस कार्य संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में हुआ है वैसा प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में अभी तक नहीं हुआ। इस दृष्टि से प्राकृत साहित्य के इतिहास को क्रमबद्ध प्रस्तुत करने का यह सर्वप्रथम प्रयास है। कलिकाल सर्वज्ञ के नाम से प्रख्यात आचार्य हेमचन्द्र के मतानुयायी विद्वानों की मान्यता है कि प्राकृत संस्कृत का ही अपभ्रष्ट रूप है। लेकिन रुद्रट के काव्यालंकार (२.१२) के टीकाकार नमिसाधु ने इस संबंध में स्पष्ट लिखा है-"व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन समस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं। इसी से प्राकृत बना है। बालक, महि. लाओं आदि की यह भाषा सरलता से समझ में आ सकती है और समस्त भाषाओं की यह मूलभूत है । जब कि मेघधारा के समान एकरूप और देशविशेष या संस्कार के कारण जिसने विशेषता प्राप्तPage Navigation
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