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प्रस्तावना प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और विकास
बोलचाल की भाषा सदा परिवर्तनशील होती है। उसमें जब साहित्य लिखा जाने लगता है तब उसे व्याकरण के नियमों से बांध दिया जाता है। इस तरह बोलचाल की गतिशील भाषा साहित्यिक भाषा होकर गतिहीन हो जाती है। ऐसा होने पर भी बोलचाल की भाषा परिवर्तनशील बनी रहती है और कालान्तर में नवीन भाषाओं की जननी होती है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से संसार की भाषाओं को प्रमुख रूप से १२ परिवारों में विभक्त किया जाता है-(१) भारोपीय (२) सेमेटिक (३) हैमेटिक (४) चीनी (५) यूराल अल्टाई (६) द्राविड (७) मैलोपालीनेशियन (८) बंटु (९) मध्य अफ्रीका (१०)आस्ट्रेलिया (११) अमेरिका (१२) शेष। इन बारह परिवारों में भारोपीय परिवार के माठ उपभाषा परिवार हैं - (१) आरमेनियम (२) बाल्टस्लैबोनिक (३) अलवेनियम (४) पीक (५) भारत-ईरानी या आर्य । ६) इटैलिक (७) कैल्टिक (6) जर्मन या ट्यूटानिक । इन आठ उपभाषा परिवारों में आर्य परिवार की तीन प्रमुख शाखाएं हैं--१) ईरानी (२) दरद (३) भारतीय आर्य । इन भाषा परिवारों में से प्राकृत भाषा का कोटुम्बिक सम्बन्ध भारतीय आर्य भाषा से है।
भारतीय आर्य भाषा को विकास-क्रम की दृष्टि से तीन युगों में विभक्त किया जा सकता है
(१) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा काल (२) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा काल
(३) आधुनिक आर्य भाषा काल प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का स्वरूप हमें वैदिक या छान्दस् भाषा में मिलता है। मध्यकालीन आर्याओं का स्वरूप हमें प्राकृत परिवार में मिलता
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