Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 9
________________ जैसे (१) अपवाद स्थलों का बाहुल्य, (२) कहीं-कहीं द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग, (३) अन्त्य व्यञ्जन के लोप की प्रवृत्ति, (४) धातुओं में गणभेद का अभाव, (५) आत्मनेपद परस्मैपद के भेद का अभाव, (६) वर्तमान काल और भूतकाल के क्रियापदों में प्रयोगों की अनियमितता, (७) नामरूपों में विभक्ति व्यत्यय (चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी तथा तृतीया के स्थान पर षष्ठी या सप्तमी का प्रयोग) आदि। इस तरह वैदिक काल से ही हमें प्राकृत भाषा के बीज उपलब्ध होते हैं। यही कारण है कि आज प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति बढ़ रही है। संस्कृत के अध्येता प्राकृत को आसानी से समझ सकें, इस उद्देश्य से लिखी गई 'प्राकृत-दीपिका' ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है जिसके फलस्वरूप यह द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। समयाभाव के कारण इसे अपने पूर्वरूप में ही पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। इसका प्रथम संस्करण जो ई० सन् १९८३ में प्रकाशित हुआ था, प्राकृत भाषा के अद्वितीय विद्वान्, परम सारस्वत पं० बेचरदास जी दोशी एवं पं० दलसुख भाई मालवणिया जी को सादर समर्पित किया गया था। इस द्वितीय संस्करण को मैं अपने परमादरणीय माता-पिता की पुण्य-स्मृति में समर्पित करके उनके प्रति अपनी भावपूर्ण श्रद्धाञ्जलि व्यक्त कर रहा हूँ। इस द्वितीय संस्करण के प्रकाशन में हमें जिनका सहयोग मिला है उनके प्रति मैं अपना आभार ज्ञापित करना चाहता हूँ। मैं प्रो० सागरमल जैन सचिव, श्री इन्द्रभूति बरड़, संयुक्त सचिव, प्रो० महेश्वरी प्रसाद निदेशक, डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय सहनिदेशक एवं डॉ० विजय कुमार, प्रकाशन-अधिकारी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ का अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने इस द्वितीय संस्करण के प्रकाशन में अपना सक्रिय सहयोग दिया। प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन संकाय-प्रमुख, कला संकाय एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय दिनांक : ०७.०७.२००५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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