Book Title: Prakrit Bhasha Vimarsh
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 5
________________ ॥ प्राक्कथन। समस्त उत्तर-भारतीय भाषाओं के विकास क्रम के अध्ययन में प्राकृत भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका के विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं। प्राचीन भारतीय वाङ्मय के अनेक धुरन्धर वैयाकरणों एवं सरस साहित्यकारों ने र्भ प्राकृत के भाषागत महत्त्व एवं उसकी मधुरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। डेढ़ हजार वर्षों के लम्बे अन्तराल में प्राकृत जन-सामान्य की स्वाभाविक भाषा रहे है। संस्कृत का परिज्ञान जहाँ परिश्रमसाध्य था, 'गुरुकुल क्लिष्टता' के बिन अप्राप्य था, वहीं प्राकृत भाषा बच्चों को शैशवावस्था में ही माता की गोद में खेलते-कूदते प्राप्त हो जाती थी। भरत जैसे महान् नाट्यशास्त्रकृत् और कालिदास-भवभूति जैसे संस्कृत के महाकवि भी प्राकृत को उपेक्षित नहीं कर पाये। भरत ने नाटकों में सामान्यजन, स्त्रीपात्र एवं बालकों के लिये स्थानीय प्राकृत का प्रयोग अनिवार्य बताया, तो संस्कृत के नाटककारों ने खुलकर और उदारता के साथ उसका प्रयोग किया। संस्कृत के अनेक उत्कृष्ट कवियों ने प्राकृत भाषा में महत्त्वपूर्ण महाकाव्यों की एवं समग्र प्राकृत नाटकों (सट्टकों) की रचना की। संस्कृत काव्यशास्त्रियों को भी सरल और मधुर व्यंग्य रचनाओं के उदाहरण खोजते समय मुख्यतः प्राकृत काव्यसंग्रहों का ही सहारा लेना पड़ा। . भाषाशास्त्रियों के लिए प्राकृत का ज्ञान अनिवार्य है, उसके बिना उत्तर भारतीय भाषाओं का न तो व्याकरण लिखा जा सकता है, और न ही शब्दों और उनकी ध्वनियों के विकासक्रम को समझा जा सकता है। प्राचीन भारतीय इतिहास का विद्यार्थी प्राकृत में उत्कीर्ण सैकड़ों शिलालेखों के ज्ञान के बिना अधूरा है और प्राकृत के ज्ञान के बिना जैनदर्शन एवं धर्म के अध्ययन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि भोगीलाल लहेरचंद भारतीय विद्या संस्थान के यशस्वी निदेशक प्रो० फूलचन्द जैन प्रेमी ने प्राकृत भाषा के स्वरूप एवं उसके महत्त्व पर अत्यन्त मनोयोग एवं परिश्रमपूर्वक प्राकृत की यह सारगर्भित, परिचयात्मक पुस्तिका तैयार की है। प्रो० जैन ने प्राकृत एवं संस्कृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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