Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

Previous | Next

Page 26
________________ यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है, किन्तु कभी - कभी इनके कारण भयंकर अर्थ-भेद भी हो जाता है। इस सन्दर्भ में एक-दो उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। उदाहरण के रूप में, सूत्रकृतांग का प्राचीन पाठ 'रामपुत्ते' बदलकर चूर्णि में 'रामाउत्ते' हो गया, किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया। इस प्रकार, जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का वाचक हो गया। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्त शासक रामगुप्त मान लिया है और उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन मूर्त्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी, जबकि वस्तुतः वह निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण आचार्य के सम्बन्ध में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं भगवान् बुद्ध ने ध्यान- प्रक्रिया सीखी थी। उनसे सम्बन्धित एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृत्दशा में उनसे सम्बन्धित जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा (Appects of Jainology Vol.II) में मैंने अपने एक स्वतंत्र लेख में की है। इसी प्रकार, आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'खेत्तन्न' शब्द, जो 'क्षेत्रज्ञ' (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे चलकर 'खेयण्ण' बन गया और उसे 'खेदज्ञ' का वाची मान लिया गया। इसकी चर्चा प्रो. के.आर. चन्द्रा ने श्रमण 1992 में प्रकाशित अपने लेख में की है । अतः, स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है, उसके माध्यम से इन समस्याओं के समाधान की अपेक्षा है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के.आर. चन्द्र और दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रारम्भ किया है, किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न पूर्ण सावधानी और ईमानदारी से न हुआ, तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। प्रथमतः, प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने 20

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132