Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya VidyapithPage 80
________________ रहा है, क्या उसकी भी इन ग्रन्थों से कोई तुलना की जा सकती है? पुनः, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि, शौरसेनी में निबद्ध 'कसायपाहुड' एवं 'षट्खण्डागम' भी 'भगवतीसूत्र', 'प्रज्ञापना', 'जीवसमास' आदि अर्धमागधी आगमों का ही विकसित एवं परिष्कारित रूप है, क्योंकि ये ग्रन्थ उनसे पूर्ववर्ती हैं। इसी प्रकार 'धवला टीका', जो दसवीं शती की रचना है, वह भी नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों से अप्रभावित नहीं है। पुनः, भाष्यों और चूर्णियां में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो शौरसेनी साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। 'मूलाचार' और 'भगवती आराधना' जैसे शौरसेनी के ग्रन्थरत्न तो 'आतुरप्रत्याख्यान', 'मरणविभक्ति', 'आवश्यकनियुक्ति' आदि के आधार पर निर्मित हैं और उनकी सैकड़ों गाथाएँ भाषिक परिवर्तन के साथ इनमें उपलब्ध हैं। अतः, अर्धमागधी और महाराष्ट्री के ग्रन्थों में शौरसेनी की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक अच्छी बातें हैं और उनके अभाव में जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति और आचार के सम्यक् इतिहास को नहीं समझा जा सकता है। 4-5. 'लाडनूं का हमारा सारा परिवार कहता है कि शौरसेनी को जाने बिना हम अर्धमागधी को नहीं जान सकते; दोनों भाषाओं का ज्ञान परस्पर एक दूसरे पर निर्भर है अतः हमें (दिगम्बर, श्वेताम्बर) को मिल-जुल कर काम करना चाहिए'. यह सत्य है कि किसी भी प्राचीन भाषा और उसके साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए उनकी समसामयिक भाषाओं तथा उनके साहित्य और परम्पराओं का ज्ञान अपेक्षित है और इस दृष्टि से आदरणीय टाँटियाजी का यह कथन कि हमारा लाडनूं का सारा परिवार यह कहता है कि शौरसेनी को जाने बिना हम अर्धमागधी को नहीं जान सकते, वह उचित ही है; किन्तु शौरसेनी आगमों पर आधारित दिगम्बर-परम्परा को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी अर्धमागधी आगमों का सम्यक् अध्ययन किये बिना शौरसेनी आगमों के मूल हार्द को नहीं समझ सकते हैं। 'षट्खण्डागम' के प्रथम खण्ड के 93वें सूत्र में 'संजद' पद की उपस्थिति को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि 'षट्खण्डागम' मूलतः उस यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है, जो अर्धमागधी आगमों और उनमें प्रतिपादित स्त्री-मुक्ति को मानती थी। 'मूलाचार' में 'पञ्जुसणाकप्प'Page Navigation
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