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सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर स्वयं डॉ.सुदीपजी द्वारा उद्धृत प्राकृतशब्दानुशासन का सूत्र दे रहा हूँ-न णोः पैशाच्यां (3/2/43) अर्थात् वैशाखी प्राकृत में 'ण' का भी 'न्' होता है, अतः पैशाची प्राकृत के खरोष्ठी लिपि में लिखे गये अभिलेखों में, चाहे वहाँ लिपि में 'ण' और 'न्' में अन्तर नहीं हो, वहाँ भी पैशाचीप्राकृत की प्रकृति के अनुसार वह 'न्' ही है और उसे 'न्' ही पढ़ना होगा।
इसके अतिरिक्त, एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पैशाची प्राकृत में 'न्' और 'ण' की अलग व्यवस्था न हो और उसमें सर्वत्र 'न्' का प्रयोग विहित हो तथा इसी कारण परवर्ती खरोष्ठी अभिलेखों में 'ण' के लिए कोई अलग से लिप्यक्षर न हो, किन्तु अर्धमागधी में 'न्' और 'ण'-दोनों विकल्प पाये जाते हैं, अतः अशोक के मागधी के अभिलेख जब मान्सेरा और शाहबाजगढ़ी में खरोष्ठी में उत्कीर्ण हुए, तो उनमें 'ण' और 'न' के लिए अलग-अलग लिप्यक्षर निर्धारित हुए हैं। पं. ओझाजी ने भी अपनी पुस्तक में खरोष्ठी के प्रथम लिपिपत्र क्रमांक 65 में 'ण' और 'न्' के लिए अलग-अलग लिप्यक्षरों का निर्देश किया है। मात्र यही नहीं उस लिपिपत्र में उन्होंने 'ण' की दो आकृतियों का एवं 'न्' की चार आकृतियों का उल्लेख किया है
ण= + + १00 न =+ SSS
इस आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि खरोष्ठी लिपि में भी ई.पू. तीसरी शती में 'न्' और 'ण' के लिए अलग-अलग आकृतियाँ रही हैं। पुनः, जब कोई किसी दूसरी भाषा के शब्दरूप किसी ऐसी लिपि में लिखे जाते हैं, जिसमें उस भाषा में प्रयुक्त कुछ स्वर या व्यञ्जन नहीं होते हैं, तो उन्हें स्पष्ट करने के लिए उसकी निकटवर्ती ध्वनि वाले स्वर एवं व्यञ्जन की आकृति में कुछ परिवर्तन करके उन्हें स्पष्ट किया जाता है, जैसे-रोमन लिपि में ङ्, ञ्, ण् का अभाव है, अतः उसमें इन्हें स्पष्ट करने के लिए कुछ विशिष्ट संकेत चिह्न जोड़े गये, यथा- यह स्थिति खरोष्ठी लिपि में रही है, जब उन्हें मागधी के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण करना हुए, उन्होंने न् (५) की आकृति में आंशिक परिवर्तन कर 'ण' (8) की व्यवस्था की।
अतः, खरोष्ठी में भी जब अशोक के अभिलेख लिखे गये, तो न् और ण् के अन्तर का ध्यान रखा गया। अतः, पं. ओझाजी के नाम पर यह कहना कि प्राचीन लिपि में 'ण'