Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 130
________________ झूठ सौ-सौ बार बोलने का प्रयास कौन कर रहा है? सम्भवतः, वे स्वयं ही इस झूठ को सौ से अधिक बार तो प्राकृतविद्या में ही लिख चुके हैं- उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि सौ बार क्या, हजार बार बोलने पर भी झूठ, झूठ ही रहता है, सच नहीं हो जाता। वे चाहे अर्धमागधी भाषा और उसके आगम साहित्य को कृत्रिम रूप से पाँचवीं शती में निर्मित कहते रहें, उसकी जिस प्राचीनता को देश-विदेश में सैकड़ों विद्वान् मान्य कर चुके हैं, उस पर कोई आँच आने वाली नहीं है। वे अर्धमागधी को लोकजीवन और लोकसाहित्य में अप्रचलित होने का प्रतिपादन कर रहे हैं, किन्तु वे जरा यह तो बतायें कि उनकी स्नैर कल्पना प्रसूत तथाकथित ओड्मागधी प्राकृत में कितना साहित्य है, किस नाटक इसका प्रयोग हुआ है, कौन से व्याकरणकार ने इसके नाम और लक्षणों का उल्लेख किया है? अर्धमागधी का आगम साहित्य तो इतना विपुल है कि उसमें युगीन लोकजीवन की सम्पूर्ण झांकी मिल जाती है। ओड्मागधी का भाषा के रूप में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है उसे भाषा बना देना और जिस अर्धमागधी के भाषा के रूप में अनेकशः उल्लेख हों " जिसका विपुल प्राचीन साहित्य हो, उसे नकार देना मिथ्या दुष्प्रचार के अतिरिक्त त नहीं है। इस सबके पीछे श्वेताम्बर साहित्य और समाज की अवमानना का सुनियो षड्यंत्र है, अतः उन्हें आत्मरक्षा के लिए सजग होने की आवश्यकता है। ***

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