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कहना और उसे दिगम्बर आगमों की तथाकथित विशुद्ध शौरसेनी से प्रभावित कहना पूर्णतः निराधार है।
खारवेल के अभिलेखों की भाषा को विद्वानों ने आर्षप्राकृत (अर्धमागधी का प्राचीन रूप) माना है और उसे पाली के समरूप बताया है। जैन आगमों में आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), इसिभासियाइं आदि की और बौद्धपिटक में सुत्तनिपात एवं धम्मपद की भाषा से इसकी पर्याप्त समरूपता है। दोनों की भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके कोई भी इसका परीक्षण कर सकता है। उसमें अर्धमागधी के अधिकांश लक्षण पाये जाते हैं, जबकि शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों, जैसे-सर्वत्र ‘ण्' का प्रयोग अथवा मध्यवर्ती 'त्' का 'द्', का उसमें पूर्णतः अभाव है। सत्य तो यह है कि जब अभिलेखीय प्राकृतों को शौरसेनी सिद्ध करना सम्भव नहीं हुआ, तो उन्होंने ओड्मागधी के नाम से नया शगूफा छोड़ा। उनकी यह तथाकथित ओड्मागधी अर्धमागधी से किस प्रकार भिन्न है और उसके ऐसे कौनसे विशिष्ट लक्षण हैं, जो प्राचीन अर्धमागधी (आर्ष) या पाली से उसे भिन्न करते हैं, किस प्राकृत व्याकरण में किस व्याकरणकार ने उसके इन लक्षणों का निर्देश किया अथवा इसके नाम का उल्लेख किया है और कौनसे ऐसे ग्रन्थ हैं, जो ओड्मागधी में रचे गये हैं? भाई सुदीपजी इन प्रश्नों का प्रामाणिक उत्तर प्रस्तुत करें। उनके अनुसार इस ओड्मागधी भाषा का निर्देश भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में है, तो फिर प्राचीनकाल से आज तक अनेकों प्राकृत-संस्कृत नाटक रचे गये, क्यों नहीं किसी एक नाटक में भी इस ओड्मागधी का निर्देश हुआ है, जबकि अन्य प्राकृतों के निर्देशन हैं। यह सब सप्रमाण स्पष्ट करें, अन्यथा आधारहीन शगूफे छोड़ना बन्द करें। इन शगूफों से वे चाहे साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त श्रद्धालुजनों को प्रसन्न कर लें, किन्तु विद्वत्वर्ग इन सबसे दिग्भ्रमित होने वाला नहीं है। डॉ. सुदीपजी का यह वाक्छल भी अधिक चलने वाला नहीं है। दिगम्बर परम्परा के प्राचीन आचार्यगण और वर्तमान युग के अनेक वरिष्ठ विद्वान्, यथा-पं.नाथूरामजी प्रेमी. प्रो.ए.एन.उपाध्ये, पं. हीरालालजी, डॉ. हीरालालजी, पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, पं. कैलाशचन्द्रजी आदि किसी ने भी ओड्मागधी प्राकृत का कहीं कोई निर्देश क्यों नहीं किया? संभवतः, भाई सुदीपजी इन सबसे बड़े विद्वान् हैं, क्योंकि वे स्वयं ही लिखते हैं'आज के अधिकांश विद्वान् ओड्मागधी प्राकृत का नाम भी नहीं जानते हैं' (प्राकृत विद्या, अप्रैल-जून 1998, पृ.14)। चूंकि ये सभी आचार्यगण और विद्वान् ओड्मागधी प्राकृत