Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 119
________________ 2. ब्राह्मी लिपि में प्रारम्भिक काल से 'न्' और 'ण्' के लिए अलग-अलग आकृतियाँ रही हैं। यह बात पं. गौरीशंकरजी ओझा के भारतीय प्राचीन लिपिमाला पुस्तक के लिपिपत्रों से ही सिद्ध हो जाती है, अतः उनके नाम से यह प्रचार करना कि प्राचीन ब्राह्मी लिपि में ‘न्’ एवं 'ण्' वर्णों के लिए एक ही आकृति ( लिपि अक्षर) का प्रयोग होता था - भ्रामक और निराधार है। शीर्षस्थ विद्वानों के कथन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर अपनी बात को सिद्ध करना बौद्धिक अप्रामाणिकता है और लगता है कि भाई सुदीपजी किसी आग्रहवश ऐसा करते जा रहे हैं। वे एक असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए एक के बाद एक असत्यों का प्रतिपादन करते जा रहे हैं। 3. पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने अभिलेखों के जो भी पाठ निर्धारित किये हैं, वे सुविचारित और प्रामाणिक हैं, उन्हें अप्रामाणिक कहने के पूर्व उनका व्यापक तुलनात्मक एवं तटस्थ अध्ययन होना आवश्यक है। दूसरों को 'अंगूठा छाप' कहने के पहले हमें अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना चाहिए। 4. जो बात पं. ओझाजी ने खरोष्ठी लिपि के लिपिपत्र 67 के सम्बन्ध में कही हो, उसे उनकी कृति का अध्ययन किये बिना, बिना प्रमाण के ब्राह्मी के सम्बन्ध में कह देना सुदीपजी के अज्ञान, अप्रामाणिकता और पल्लवग्राही पाण्डित्य को ही प्रकट करता है। इस प्रकार के अपरिपक्व और अप्रामाणिक लेखन से 'अंगूठाछाप' कौन सिद्ध होगा, यह विचार कर लेना चाहिए। 5. प्राकृत में 'न्' का प्रयोग प्राचीन है और 'ण्' का प्रयोग परवर्ती है - इसकी सिद्धि तो अभिलेखों, विशेष रूप से शौरसेन प्रदेश एवं मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में प्रारम्भ में ‘ण्' की अनुपस्थिति और फिर उसके बाद कालक्रम में उसके प्रतिशत में हुई वृद्धि आदि से ही हो जाती है, जिसकी प्रामाणिक चर्चा पं. ओझाजी की पुस्तक के आधार पर हम कर चुके हैं, अतः प्राकृत में 'न्' का अथवा विकल्प से न् और ण् का प्रयोग प्राचीन है और 'नो णः सर्वत्र' का सिद्धान्त और उसको मान्य करने वाली प्राकृतें परवर्ती हैं, यह एक सुविचारित तथ्यपूर्ण निर्णय है। 6. रही बात विवाद उठाने की और सदाशयता की, तो सुदीपजी स्वयं ही बतायें कि शौरसेनी को प्राचीन बताने की धुन में 'अर्धमागधी आगम साहित्य पर नकल करके 113

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