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शौरसेनी कहा जा रहा है, वह वस्तुतः न तो व्याकरणसम्मत शौरसेनी है और न नाटकों की शौरसेनी, अपितु अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी है, जिसमें इनके मिश्रण के अनुपात भी प्रत्येक ग्रन्थ और उसके प्रत्येक संस्करण में भिन्न-भिन्न हैं।
इसकी चर्चा मैंने अपने लेख जैन आगमों की मूलभाषा मागधी या शौरसेनी में की है। शौरसेनी का साहित्यिक भाषा के रूप में तब तक जन्म नहीं हुआ था। नाटकों एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों की भाषा तो उसके तीन-चार सौ वर्ष बाद अस्तित्व में आई है। वस्तुतः दिल्ली, मथुरा एवं आगरा के समीपवर्ती उस प्रदेश में, जिसे शौरसेनी का जन्मस्थल कहा जाता है, अशोक के जो भी अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें शौरसेनी के लक्षणों यथा 'त्' का 'द्', 'न्' का 'ण' आदि का पूर्ण अभाव है। मात्र यही नहीं, उसमें 'लाजा' (राजा) जैसा मागधी का शब्दरूप स्पष्टतः पाया जाता है। इसी प्रकार, गिरनार के अभिलेखों में भी शौरसेनी के व्याकरणसम्मत लक्षणों का अभाव है। उनमें अर्धमागधी के वे शब्दरूप, जो शौरसेनी में भी पाये जाते हैं, देखकर यह कह देना कि अशोक के अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त शौरसेनी में है, यह उचित नहीं है। उसे अर्धमागधी तो माना जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं माना जा सकता है। पाठकों को स्वयं निर्णय करने के लिए यहाँ दिल्ली टोपरा के अशोक के अभिलेखों का मूलपाठ प्रस्तुत है
दिल्ली टोपारा स्तम्भ प्रथम अभिलेख (धर्मपालन से इहलोक से परलोक की प्राप्ति)
(उत्तराभिमुख) 1. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (1) सडुवीसति2. वस अभिसितेन मे इयं धमलिपि लिखापिता (2) 3. हिदतपालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धमकामताया 4. . अगायपलीखाया अगाय सुसूयाया अगेन भयेन 5. अगन उसाहेना (3) एस चुखो मम अनुसथिया धंमा6. पेखा धमकामता चासुवे सुवे वडिता वडीसति चेवा (4) 7. पुलिसा पिच मे उकसा चागेवयाचा मझिमा चा अनुविधीयंती