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मागधी भाषा की इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने के कारण दूसरे प्रदेशों की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात् करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलतः मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भाषा में लिखे गए थे, फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की जनता के लिए यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी, इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के मूल पाठों का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषान्तर कर दिया जाए। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न संस्करणों में पाठ भेद पाया जाता है। पाठ भेद इस तथ्य का सूचक है कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियाँ थीं, जिनकी अपनी विशेषताएँ थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्दरूप देखने से यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की सार्वदेशिक भाषा थी, मूलतः इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए थे, इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं, परन्तु यह नाटकों एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है। जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य 'श्' का प्रयोग होता है, वहाँ अशोक के अभिलेखों में केवल दन्तव्य ‘स्' का प्रयोग होता है। (अशोक के अभिलेख-डॉ.राजबली पाण्डेय, पृ.22-23) __इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न है और उसमें अन्य बोलियों के शब्दरूप निहित हैं, इसलिए हम इसे अर्धमागधी भी कह सकते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध अर्धमागधी की अपेक्षा यह किञ्चित् भिन्न है, फिर भी इतना निश्चित है कि यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं-मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' का प्रयोग और दन्त्य 'न्' के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग। अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत भवति' का 'भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है, जबकि अशोक के अभिलेखों में एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र 'होति' रूप पाया जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का 'पिति' या 'पितु' रूप मिलता है, जो कि अर्धमागधी का लक्षण है। शौरसेनी की दृष्टि से तो उसका 'पिदु' रूप होना था। इसी प्रकार, 'आत्मा' शब्द का शौरसेनी प्राकृत में 'आदा' रूप बनता है, जबकि अशोक के अभिलेखों में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र 'अत्ने',