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सकते हैं कि कोई भी ऐसी आदर्श प्रति है, जो पूर्णतः शुद्ध है-- जब आदर्शों में भिन्नता
और अशुद्धियाँ हैं, तो उन्हें दूर करने के लिए व्याकरण के अतिरिक्त विद्वान किसका सहारा लेंगे? क्या आज तक कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिए मात्र आदर्श के आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस आधार पर किया जायेगा? मैं भी मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श प्रति का आधार आवश्यक है, किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग आवश्यक है। मात्र यही नहीं, अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है, जैसा कि आचार्य श्री तुलसीजी ने मुनि जम्बूविजयजी को अपनी सम्पादन-शैली का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था।
आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनिश्री जम्बूविजयजी का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। पुनः, इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुतः, लेखन की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में कम होते गये हैं, किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अतः, चन्द्राजी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित नहीं है।
वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें भी 'त' श्रुति और 'य' श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप सम्बन्धी जो वैविध्य हैं, वे न केवल आश्चर्यजनक हैं, अपितु विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी हैं।
यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक दो उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ
चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तजहा-सुती नामं एगे सुती, सुई नामं एगे असुई, चउभंगो। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, चउभंगो।
___ (चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक 241, पृ.94)