Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 63
________________ 10. तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ 11. · लोकविभाग 12. जम्बूदीपपण्णत्ति 13. अंगपण्णत्ति 14. क्षपणसार 15. गोम्मटसार (दसवीं शती) इनमें से 'कषायपाहुड' को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पाँचवी शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पाँचवी शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में 'समवायांग' और 'आवश्यकनियुक्ति' की दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि 'षट्खण्डागम', 'मूलाचार ', 'भगवतीआराधना' आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसकी चर्चा पायी जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार, उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' -मूल और उसके स्वोपज्ञभाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएं गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएँ प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है, अतः यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है, इसलिए शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ, जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं हो सकता। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र 'कसायपाहुड' ही ऐसा है, जो स्पष्टतः गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है; किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से 12 गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका उल्लेख 'आचाराङ्गनियुक्ति' और 'तत्त्वार्थसूत्र' में है, से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमणकाल की रचना है, अतः उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध होता है। शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार पर किया जाता है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म

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