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चतुर्थ शती में अस्तित्व में अवश्य आये थे; किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा। वस्तुतः, ये 'आचाराङ्ग', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक', 'ऋषिभाषित' आदि श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय-परम्परा में मान्य थे और जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ-भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं।
वस्तुतः, आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं, उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैंअ) यापनीय आगम
1. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधराचार्य-रचित 2. षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवी शती का उत्तरार्द्ध, पुष्पदन्त और भूतबलि। 3. भगवती आराधना, ईसा की छठवीं शती, शिवार्य-रचित। 4. मूलाचार, ईसा की छठवीं शती, वट्टकेर-रचित।
ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः यापनीय-परम्परा के रहे हैं और इसमें अनेकों गाथाएं श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। ब) कुन्दकुन्द, ईसा की पांचवी-छठवीं शताब्दी के लगभग के ग्रन्थ
5. समयसार ___6. नियमसार
7. प्रवचनसार 8. पञ्चास्तिकायसार
9. अष्टपाहुड (इसका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना संदिग्ध है, क्योंकि इसकी भाषा में अपभ्रंश के शताधिक प्रयोग मिलते हैं और इसका भाषा स्वरूप भी कुन्दकुन्द की भाषा से परवर्ती है) स) अन्य ग्रन्थ (ईसा की पाँचवी-छठवीं शती के पश्चात्)