Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya VidyapithPage 74
________________ है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल या आधार है। संस्कृत शब्दरूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिए आवश्यक था कि संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिए ही प्राकृत व्याकरण लिखे गये थे। जब डॉ.सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं, तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी का मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा है- इससे यह सिद्ध नहीं होता हैं कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्राचार्य ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है, अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राकृत प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई हैं। प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी इस सन्दर्भ में टाँटियाजी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि 'यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से 1500 वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही 500 ई. से परवर्ती मानना पड़ेगा। ज्ञातव्य है कि यहाँ महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त्' मध्यवर्ती प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं, उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी में मध्यवर्ती 'त्' रहता था और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री (जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कह रहे हैं) में बदले गये, तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' कार प्रधान पाठ क्यों उपलब्ध नहीं हो रहे हैं', जो शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसंग में डॉ.टाँटियाजी के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी 'आचाराङ्गसूत्र' आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टाँटियाजी से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा कि वे आचाराङ्ग, ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' पाठ दिखला दें।Page Navigation
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