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लिखते हैं-- 'पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल के वही पाठ प्रदान करें, जो तीर्थंकरों ने अर्थरूप में प्ररूपित और गणधरों ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है। सर्वज्ञों को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभिष्ट था, वह सचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेरबदल नहीं कर सकता।' उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा, वह किसने किया? आज हमारे पास जो आगम हैं, उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, मुम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठभेद क्यों है? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन मानें और आपके शब्दों में किसे भेल-सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पण्डित आगमों में कोई भेल-सेल कर रहे हैं, या फिर वे उसके शुद्ध स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टिसम्पन्न विद्वान् ने आगमों में कोई भेल-सेल किया? इसका एक भी उदाहरण हो, तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को भेल-सेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना की जा रही है। पुनः, जहाँ तक मेरी जानकारी है डॉ.चन्द्रा ने एक भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है, जो आदर्शसम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्दरूप किसी भी एक आदर्शप्रति में एक-दो स्थानों पर मिल गये, उन्हें आधार मानकर अन्य स्थलों पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल करना होता, तो वे इतने साहस के साथ पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों के विचार जानने के लिए उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारखजी स्वयं यह कहते हैं कि कुल 116 पाठभेदों में केवल 1 'आउसंतेण' को छोड़कर शेष 115 पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता, तो फिर उन्होंने ऐसा कौनसा अपराध कर दिया, जिससे उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थान पर उसे नकारा जा रहा है? आज यदि आचारांग के लगभग 40 से अधिक संस्करण हैं और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही पाठ छापे हैं, तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें, क्या सभी को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा। क्या हम ब्यावर, जैन विश्वभारती, लाडनूं और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान महत्व का समझें? भय भेल-सेल का नहीं है, भय यह है कि अधिक प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों की सम्पादन में रही कमियाँ उजामर हो जाने का और यही खोज का मूल कारण प्रतीत होता है। पुनः, क्या श्रद्धेय पारखजी यह बता