Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 56
________________ लिखित रूप में आ गये, अतः उनके भाषिक स्वरूप में रचना-काल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है, तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्नभिन्न रही है। आज भी श्रीलंका, बर्मा, थाईलैण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उचारण भिन्न भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके विपरीत, जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा, फलतः देश और कालगत उच्चारण भेद से उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित हुए। श्वेताम्बर आगमों की प्रतिलिपियाँ मुख्यतः गुजरात एवं राजस्थान में हुईं, अतः उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। 5. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन-मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ई. सन् की 5 वीं शती तक इस कार्य को पापप्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी, फलतः महावीर के पश्चात् लगभग 1000 वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत परम्परा पर ही आधारित रहा। श्रुत परम्परा पर आधारित होने से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया। आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र का होता था, उस पर भी उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्दरूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में, चाहे मूल पाठ में 'गच्छति' लिखा हो, लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में 'गच्छई' का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार 'गच्छइ' रूप ही लिख देगा। 7. जैन आगम एवं आगमतुल्य ग्रन्थों में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते

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