Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 49
________________ प्रश्न है ? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टाँटियाजी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, 1993, खण्ड 19, अंक 1 ) में लिखते हैं कि 'डॉ.नथमल टाँटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन सूत्रकृताङ्ग और दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।' दूसरी ओर, प्राकृतविद्या के सम्पादक डॉ. सुदीपजी का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उनके विचारों की अविकल रूप से यथावत् प्रस्तुति की है। मात्र इतना ही नहीं डॉ. सुदीपजी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे टाँटियाजी से मिले हैं और टॉटियाजी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टाँटियाजी के इस कथन को उन्होंने प्राकृतविद्या, जुलाईसितम्बर 1996 के अंक में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है 'मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है, जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है । ' (पृष्ठ 9) यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों के मध्य है; किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और डॉ. टाँटिया का मूल मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव था जब डॉ. टॉटिया स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य देते; किन्तु वे इस सम्बन्ध में मौन रहे। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था; किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डॉ. टाँटिया की उलझन समझता हूँ- एक ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यान हेतु आमन्त्रित किया था, तो दूसरी ओर वे 'जैन विश्वभारती' की सेवा में थे, जब जिस मंच से बोले होंगे, भावावेश में उनके अनुकूल कुछ कह दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें ? फिर भी, मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती है कि डॉ. टाँटिया जैसे गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दें। कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही है। डॉ. सुदीपजी प्राकृतविद्या, जुलाईसितम्बर,1996 में डॉ. टाँटियाजी के उक्त व्याख्यानों के विचार - बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि 'हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से (के आधार

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