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उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के समक्ष चिता के मध्य में अमृतरस छोड़ा गया । वह सुमति कन्या अलंकारसहित जीती हुई उठी। तब उसके साथ एक वर भी जिया। कर्म के वश से फिर चारों ही वर एक-एक करके मिल गए । कन्या से विवाह करने के लिए आपस में विवाद करते हुए बालचन्द राजा के मन्दिर में गए। चारों के द्वारा ही राजा के लिए निज' बात कही गई। राजा के द्वारा मन्त्री कहे गएइन के विवाद को समाप्त करके एक वर प्रमाणित किया जाना चाहिए । सब मन्त्रियों ने भी आपस में विचार किया । किसी से भी विवाद नहीं सुलझा । क्योंकि
समीपस्थ युद्ध में, कर्तव्य की सूझ से हीन व्यक्ति में, परामर्श में, उसी प्रकार अकाल में जिसका मुंह देखा जाता है वह पुरुष पृथ्वी पर दुर्लभ होता है ।
तब एक मन्त्री के द्वारा कहा गया- "यदि (तुम लोग ) मानोगे तो विवाद हल कर दूंगा।" उनके द्वारा कहा गया 'जो राजहंस के समान गुण-दोष परीक्षा करके पक्षपात रहित (होकर) विवाद को सुलझाता है उसकी बात को कौन नहीं मानेगा।" तब उसके द्वारा कहा गया- "जिसके द्वारा जिलाया गया, वह जन्म हेतुत्व के कारण पिता हुआ । जो एक साथ जिया वह एक जन्मस्थान होने के कारण भाई हुा । जो अस्थियों को गंगा के मध्य में डालने के लिए गया वह पीछे पुण्य करने के कारण पुत्र के समान हुआ । जिसके द्वारा वह स्थान रक्षा किया गया वह पति है। इस प्रकार मन्त्री द्वारा विवाद नष्ट किया गया । कुरुचन्द नामवाले चौथे वर के द्वारा वह परणी गई।
प्राकृत अभ्यास सौरम ]
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