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कि इससे उनके धर्म की वृद्धि होगी। परंतु उन्हें इतना नहीं समझता कि इससे समाज की कितनी हानि हो रही है। और जब ऐसी कूपमंडूकता से समाज ही कुछ दिन में नष्ट हो जावेगा तो उनके अनुयायी कौन रहेंगे। साधुजनों ! यदि आपको अपने धर्म की वृद्धि करनी है तो साथ साथ समाज की वृद्धि के मी उपाय करते रहना चाहिये। क्या आपके अनुयायी अविवाहित रहेंगे तो अथवा निसंतानी होंगे तो आपका धर्म टिक सकता है ? " अपंनिजःपरोवेत्ती” ऐसा आचरण लघुताका दर्शक है। धर्मवृद्धि बंधनों से नहीं होती। उसको तो विद्वत्ता, निरभिमानता, वाक्चतुरता, निरपेक्षता । ओर कट्टर त्याग तथा निस्वार्थ की आवश्यकता है। बडे बडे धर्म संस्थापक तथा उद्धारकों ने यदि ऐसी कूपमंडूकता की होती तो आज भारत में ऐसे उच्चकोटी के धर्म दृष्टिगोचर भी न होते । दुसरे यह धार्मिक प्रश्न तथा विवाह संबंध का प्रश्न बहुत सुलभता से हल हो सकता है। प्रस्तुत पुस्तक लिखने के पहिले ऐतिहासिक सामुग्री एकत्रित करने को मैने भारत के कई प्रांतो में परिभ्रमण किया है । उस समय पौरवाल, ओसवाल आदि कई लोंगो से तथा साधु मुनिराजों से इस संबंध में वांतीलाप करने का मुझे अवसर मिला था, और तब उपरोक्त शंकाएं मेरे सन्मुख रखी गई थी। उस समय मैने उन लोगों को यही उपाय सुझाया था कि, प्रायः कन्या का धर्म उसके माता पिता का जो धर्म हो वही होता है । और