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पार्श्वनाथ
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फिरती है और उनके चंगुल में फंसकर अपने दर्शन और चारित्र रूप धर्म को मिट्टी से मिलाती है । उन्हें सोचना चाहिए कि इस समस्त विश्व मे धर्म ही सर्वश्रेष्ठ और अनमोल वस्तु है । धर्म ही इस लोक और परलोक में मनवांछित सुख देने वाला है। धर्म के विना सच्चे सुख की प्राप्ति होना असंभव है । ऐसी अवस्था में तुच्छ उद्देश्य की पूर्ति के लिए धर्म जैसे महामहिम पदार्थ का परित्याग कैसे किया जा सकता है ? इसके अतिरिक्त भैरूँ भवानी आदि की विडम्बनाएं निरा धोखा ही है । भोली महिलाओ का द्रव्यधन और भाव धन लूटने का साधन है । तात्पर्य यह है कि पुरोहित विश्वभूति किसी भी सांसारिक कामना के वशीभूत होकर अपने धर्म से च्युत नहीं होता था । धर्म के विषय मे वह किसी के प्रभाव से परिभूत न होता था । विश्वभूति की पत्नि अनुधरा भी उसी के अनुरूप स्त्री थी । वह अपने पति से भी दो कदम आगे रहती थी। इसी अनुधरा की कुक्षि से दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके क्रमशः कमठ और मरुभूति नाम रखे गये । ये दोनों भाई जब कुछ बड़े हुए तो दोनो को नाना विद्याएँ और कलाएं सिखलाई गई । यद्यपि दोनो की शिक्षा समान रूप से संपन्न हुई पर दोनों के संस्कार समान नही थे। दोनो मे प्रकाश और अंधकार के समान अन्तर था । मरुभूति सद्गुणो का आगार था तो कमठ शठ और दुर्गुणों का भंडार था । मरुभूति अपने वाल्यकाल मे ही अपने सद्गुणो के मनोहर सौरभ से सब को आल्हादित करता था और कमठ अपने दुर्गुणों की दुर्गन्ध इतस्तत फैलाकर सबको दुखी बनाता
था ।
पुरोहित विश्वभृति के जीवन की सध्या प्रारंभ हो चुकी थी ।
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