Book Title: Panchvastukgranth
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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एव पतापि हु पर अहआरं विवक्खहेऊणं । आसेवणे ण दोसोत्ति धम्मचरणं जहाऽभिहिअं ॥ ८७० ॥ सम्मं कयपडिआरं बहुअंपि विसं न मारए जह उ । थेपि अ विवरीअं मारइ एसोवमा एत्थ ॥ ८७१ ॥ जे पडिआरविरहिआ माइणो तेसि पुण तयं विंति । दुग्ग हिअसराहरणा अणिट्ठफलयंपिमं भणिअं ॥ ८७२ ॥ खुद्द आराणं चिअ मणुआइसु असुहमो फलं नेअं । इअरेसु अ निरयासु गुरुअं तं अन्नहा कत्तो ? ॥ ८७३ ॥ एवं विआरणाए सह संवेगाओ चरणपरिवुड्डी ।
इहरा समुच्छिमपाणितल्लया होइ दोसा य ॥ ८७४ | दारं
एवं पवमाणस्स कम्मदोसा य होज्ज इत्थीसु । रागोऽहवा विणा तं विहिआणुट्टाणओ चेव || ८७५ ॥ सम्मं भावे अवाई असुहमणहत्थि अंकुससमाई । विसयविसागयभूआई णवरं ठाणाई एआई || ८७६ ॥ विजम्मि मसाणाइस ठिएण गीअत्थसाहुस हिएणं । भावेअवं पढमं अथिरत्तं जीवलोअस्स ॥ ८७७ ॥ जी जोषण मिट्टी पिअसंजोगाइ अस्थिरं सवं । विसमखरमारुह्यकुसग्गजलबिंदुणा सरिसं ॥ ८७८ ॥ विया यदुक्वा चिंतायासबहुदुक्ख संजणणा | माइंदजालसरिसा किंवागफलोवमा पावा || ८७९ ॥ ततो अ माइगामस्स निआणं रुहिरमाइ भाविज्जा । कलमलगमंससोणिअपुरीसपुण्णं च कंकालं ॥ ८८० ॥ तस्सेव य समरागाभावं सइ तम्मि तह विचिंतिजा । संझन्भगाण व सया निसग्गचलरागयं चैव ॥ ८८१ ॥ असदारंभाण तहा सवेसिं लोगगरह णिज्जाणं । परलोअवेरिआणं कारणयं चैव जन्तेणं ॥ ८८२ ॥
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