Book Title: Panchvastukgranth
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
View full book text
________________
श्रीपञ्चव. ३ गणागुण्णा
॥ २७६ ॥
Jain Education Inter
सो थेवओ बराओ गंभीरपयत्थ भणिइमग्गमि । एगंतेणाकुसलो किं तेसि कहेइ सुहुमपर्यं ? ॥ ९३८ ॥ चिभागं दण वहाण होअवण्णत्ति । पवयणधरो उ तम्मी इअ पवयणखिंसमो आ ॥ ९३९ ॥ ससाण कुण कह सो तहाविहो हंदि नाणमाईणं । अहिआहि असंपत्तिं संसारुच्छेअणिं परमं । ॥ ९४० ॥ अपत्तणओ पायं हे आइविवेगविरहओ वावि । नहु अन्न ओवि सो तं कुणइ अ मिच्छाभिमाणाओ ॥ ९४९ ॥ तो sविता कालेणवि होंति नियमओ चेव । सेसाणवि गुणहाणी इअ संताणेण विन्नेआ ॥ ९४२ ॥ नाणामभावे होइ विसिद्वाणऽणत्थगं सवं । सिरतुंडमुंडणाइचि विवज्जयाओ जहन्नेसिं ॥ ९४३ ॥ णय समहविगप्पेणं जहा तहा कयमिणं फलं देइ । अवि आगमाणुवाया रोगचिगिच्छाविहाणं व ॥ ९४४ ॥ इय दवलिंगमित्तं पायमगीआओ जं अणत्थफलं । जायइ ता विष्णेओ तित्थुच्छेओ अ भावेणं ॥ ९४५ ॥ कालोचिअत्तत्थे तम्हा सुविणिच्छियस्स अणुओगो । नियमाणुजाणिअवो न सवणओ चैव जह भणिअं ॥ ९४६ ॥ जह जह हुस्सुओ सम्मओ अ सीसगणसंपरिवुडो अ । अविनिच्छिओ अ समए तह २ सिद्धंतपडिणीओ ॥ ९४७ ॥
पिणीयं सो उत्तममइसएण गंभीरं । तुच्छकहणाए हिट्ठा सेसाणवि कुणइ सिद्धतं ॥ ९४८ ॥ अविणिच्छिओण सम्म उस्सग्गव बायजाणओ होइ। अविसय पओगओ सिं सो सपरविणासओ निअमा ॥ ९४९ ॥
For Private & Personal Use Only
अल्पज्ञे नानुयोगा
नुज्ञा
॥ २७६ ॥
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634