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भूमिका
(च) आयंबिल भात, उड़द आदि के साथ माँड या खट्टारस उपयोग में लाना आयंबिल प्रत्याख्यान है ।
(छ) अभक्तार्थ. जिसमें भोजन का कोई उपयोग नहीं होता है, वह उपवास प्रत्याख्यान है । उपवास तिविहार और चौविहार दोनों प्रकार का हो सकता है ।
(ज) पानी का आगार मुनियों को सदैव तथा गृहस्थों को एकासन, उपवास आदि में अचित्त पानी का ही प्रयोग करना चाहिये । अचित्त पानी का प्रयोग ही पानी का आगार कहलाता है ।
(झ) चरिम चरिम अर्थात् अन्तिम । यह दिन और वर्तमान भव दोनों का हो सकता है। दिन के अन्तिम भाग अर्थात् सूर्यास्त तक किया गया प्रत्याख्यान दिवस - चरिम और जीवन के अन्तिम समय में किया गया प्रत्याख्यान भव- चरिम कहलाता है ।
(ञ) अभिग्रह विशेष प्रकार का नियम या प्रतिज्ञा लेना अभिग्रह प्रत्याख्यान कहलाता है ।
(ट) विगय - विगय यानी विकृति उत्पन्न करने वाले आहार का त्याग करना विगय प्रत्याख्यान है । विगय दस हैं - दही, घी, दूध, तेल, गुड़, तली हुई वस्तुएँ, मक्खन, मधु, मांस और मदिरा । इनमें से अन्तिम चार विगय महाविगय हैं और अभक्ष्य भी हैं ।
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३. सामायिक द्वार सामायिक में सभी पदार्थों पर समभाव होता है। मन, वचन और कायपूर्वक जीवनपर्यन्त सर्वसावद्य योग के त्याग रूप सामायिक का प्रत्याख्यान किया जाता है । सर्वसावद्ययोग के त्याग के कारण सामायिक में प्रत्येक प्रवृत्ति समभावपूर्वक होने से आगारों की आवश्यकता नहीं होती है ।
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४. भेद द्वार ज्ञान आदि की सिद्धि के लिए आहार के चारों अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का प्रत्याख्यान किया जा सके ।
भेदों का ज्ञान होना चाहिए, जिससे
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६. स्वयंपालन द्वार पालन करना और दूसरों को आहार मिलेगा, इन सब बातों
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५. भोगद्वार - शरीर की जब तीनों धातुएँ वात, पित्त और कफ सम हो जाएँ, तभी शान्तचित्त होकर भोजन करना चाहिये । भोजन से पूर्व जो भी क्रियाएँ करने का प्रत्याख्यान किया है, उसको करके, बड़ों की आज्ञा लेकर ही भोजन करना चाहिये ।
आहार प्रत्याख्यान ग्रहण करके स्वयं उसका आहार देने व अन्य साधुओं को कहाँ से को बताना चाहिये । साधुओं की बीमारी में
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