Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 442
________________ एकोनविंश तपोविधि पञ्चाशक ३३७ क्योंकि उपर्युक्त बारह प्रकार के तपों में उनका समावेश हो जाता है। प्रकीर्णक तप आगामी गाथाओं में वर्णित किये जायेंगे। तीर्थंकरों द्वारा उनकी दीक्षा, केवलज्ञान-प्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति आदि के अवसर पर जिस प्रकार के तप किये गये थे, तदनुसार जो तप किये जाते हैं वे प्रकीर्णक तप के अन्तर्गत आते हैं। प्रकीर्णक तपों के अनेक भेद हैं । इन तपों में जो दीक्षा आदि का आलम्बन है वह अतिशय शुभभाव रूप है, इसलिए ये इहलोक और परलोक में उपकारी होने से सभी गुणों के साधक हैं। ये भव्य जीवों के लिए और विशेष रूप से अव्युत्पन्न बुद्धिवाले जीवों के लिए तो निश्चित रूप से हितकारी हैं। वैसे भी सभी प्रकार के तप हितकारी ही हैं ।। ४-५ ।। तीर्थङ्कर निर्गम तप तित्थयरणिग्गमो खलु ते जेण तवेण णिग्गया सव्वे । ओसप्पिणीए सो पुण इमीइ एसो विणिद्दिट्ठो ।। ६ ।। तीर्थङ्करनिर्गमः खलु ते येन तपसा निर्गताः सर्वे । अवसर्पिण्यां तत्पुन अस्यामेतद् विनिर्दिष्टः ।। ६ ।। तीर्थङ्कर जिस तप से दीक्षा लेते हैं, वह तीर्थङ्करनिर्गमन (तीर्थंकर अभिनिष्क्रमण) तप कहलाता है। इस अवसर्पिणी काल में होने वाले तीर्थंकरों के उस तप का विवेचन आगे की गाथाओं में किया जा रहा है ।। ६ ।। सुमइ त्थ णिच्चभत्तेण णिग्गओ वसुपुज्ज जिणो चउत्थेण । पासो मल्लीवि य अट्ठमेण सेसा उ छटेणं ।। ७ ।। सुमतिः त्थ नित्यभक्तेन निर्गतो वासुपूज्यो जिनश्चतुर्थेन । पार्थो मल्ली अपि च अष्टमेन शेषास्तु षष्ठेन ।। ७ ।। सुमतिनाथ भगवान् ने नित्यभक्त (एकाशन), वासुपूज्य भगवान् ने उपवास, पार्श्वनाथ और मल्लिनाथ भगवान् ने अट्ठम (तेला - निरन्तर तीन दिन का उपवास) और बाकी के बीस तीर्थङ्करों ने छ? (बेला - दो दिन का उपवास) करके दीक्षा ली थी ।। ७ ।। उक्त तप करने की विधि उसभाइकमेणेसो कायव्वो ओहओ सइ बलम्मि । गुरुआणापरिसुद्धो विसुद्धकिरियाएँ धीरेहिं ॥ ८ ॥ ऋषभादिक्रमेण एषः कर्तव्य ओघत: सति बले । गुर्वाज्ञापरिशुद्धो विशुद्धक्रियया धीरैः ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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