Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 453
________________ ३४८ पञ्चाशकप्रकरणम् . [एकोनविंश और उपवास - इन चार में से कोई एक तप अपनी शक्ति के अनुसार सोलह दिन तक करना चाहिए। इसे चार भाद्रपद महीनों में करने से चौंसठ दिन में यह समवसरण तप पूरा होता है। अमावस्या को पट पर उत्कीर्ण नन्दीश्वर जिनचैत्य की पूजा करके उपवास आदि करना नन्दीश्वर-तप कहलाता है। चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन श्री पुण्डरीक गणधर की पूजा के साथ उपवास आदि करना पुण्डरीकतप है। जिनबिम्ब के सामने कलश रखकर उसमें प्रतिदिन एक मुट्ठी चावल रखने से जितने दिन में वह कलश भर जाये उतने दिन एकाशन आदि तप करना अक्षयनिधि-तप कहलाता है। प्रतिपदा को एक उपवास, द्वितीया को दो उपवास, तृतीया को तीन उपवास, इसी प्रकार पूर्णिमा को पन्द्रह उपवास करना सर्वसौख्यसम्पत्तितप कहलाता है। इसी प्रकार दूसरे भी तप हैं ।। ३८ ॥ ये तप आगम में नहीं दिखते हैं - इस शंका का समाधान चित्तं चित्तपयजुयं जिणिंदवयणं असेससत्तहियं । परिसुद्धमेत्थ किं तं जं जीवाणं हियं णत्थि ? ।। ३९ ।। चित्रं चित्रपदयुतं जिनेन्द्रवचनम् अशेषसत्त्वहितम् । परिशुद्धमत्र किं तद्यज्जीवानां हितं नास्ति ? ।। ३९ ।। आगम अंग और अंगबाह्य – इन दो भेदों में विभक्त होकर अनेक प्रकार का है। वह अनेक प्रकार के अर्थों वाले शब्दों से युक्त है। जीवों की योग्यतानुसार मोक्षमार्ग को स्वीकार करने का उपाय होने से सम्पूर्ण जीवों के लिए उपकारक है। कष, छेद और ताप से सुवर्ण की तरह विशुद्ध है। इस जिनवचन में ऐसा क्या है ? जीवों का हित नहीं है ? अर्थात् इसमें जो भी है वह सब जीवों के लिए हितकर है। इसलिए उपर्युक्त तप आगम में उपलब्ध न होने पर भी आगम सम्मत हैं - ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि ये तप वैसे भी लोगों के लिए हितकारी हैं और जो भी हितकारी हैं, वे आगम-सम्मत हैं ।। ३९ ।। दर्शन-ज्ञान-चारित्र तप का स्वरूप सव्वगुणपसाहणमो णेओ तिहिँ अट्ठमेहिँ परिसुद्धो। दंसणनाणचरित्ताण एस रेसिंमि सुपसत्थो॥ ४० ॥ सर्वगुणप्रसाधनो ज्ञेयः त्रिभिरष्टमैः परिशुद्धः । दर्शनज्ञानचरित्राणामेषः निमित्तं सुप्रशस्तः ।। ४० ।। दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए तीन अष्टम (तीन तेलों) से तपविशेष होता है। यह तप सभी गुणों का साधक है, विशुद्ध है और अतिशय शुभ है। इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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