Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 454
________________ एकोनविंश] तपोविधि पञ्चाशक ३४९ पहला अष्टम (तेला) दर्शन-गुण की शुद्धि के लिए, दूसरा अष्टम (तेला) ज्ञानगुण की शुद्धि के लिए और तीसरा अष्टम (तेला) चारित्रगुण की शुद्धि के लिए है ॥ ४० ॥ ___ यह तप करने वाला निदान रहित है – इसकी पुष्टि एएसु वट्टमाणो भावपवित्तीऍ बीयभावाओ । सुद्धासयजोगेणं अणियाणो भवविरागाओ ।। ४१ ।। एतेषु वर्तमानो भावप्रवृत्त्या बीजभावात् । शुद्धाशययोगेन अनिदानो भवविरागात् ।। ४१ ।। इन तपों में उद्यत जीव श्रद्धापूर्वक क्रिया करता है, इसलिए निदान (आकांक्षा) रहित होता है। श्रद्धा या बहुमानपूर्वक क्रिया करने से शुभ अध्यवसाय (शुभभाव) होता है और शुभ अध्यवसाय से बोधिबीज प्राप्त होता है, जो भवनिर्वेद (संसार से मुक्ति) का कारण है। इसलिए ये सब तप कुछ जीवों के लिए भवविरह (मुक्ति) का कारण होने से निदान रहित हैं ।। ४१ ।। उपर्युक्त कथन का मतान्तर से समर्थन विसयसरूवणुबंधेहिं तह य सुद्धं जओ अणुट्ठाणं । णिव्वाणंगं भणियं अण्णेहिवि जोगमग्गम्मि ।। ४२ ।। एयं च विसयसुद्धं एगंतेणेव जं तओ जुत्तं । आरोग्गबोहिलाभाइ - पत्थणाचित्ततुल्लंति । ४३ ।। विषयस्वरूपानुबन्धेषु तथा च शुद्धं यतोऽनुष्ठानम् । निर्वाणाङ्गं भणितमन्यैरपि योगमार्गे ॥ ४२ ।। एतच्च विषयशुद्धमेकान्तेनैव यत्ततो युक्तम् । आरोग्य - बोधिलाभादि - प्रार्थना - चित्ततुल्यमिति ।। ४३ ।। अन्य दार्शनिकों ने भी अध्यात्म-ग्रन्थों में विषय, स्वरूप और अनुबन्ध से शुद्ध अनुष्ठान को मोक्ष का कारण बतलाया है, इसलिए ये तप मात्र मोक्ष का कारण होने से निदान रहित होते हैं। विषयशुद्ध --विषय अर्थात् तप का आलम्बन। जैसे तीर्थङ्कर निष्क्रमण (दीक्षा) तप में तीर्थङ्कर की दीक्षा आलम्बन है। जिस तप में आलम्बनशुद्ध हो वह विषयशुद्ध है। स्वरूपशुद्ध-जिस तप में आहारत्याग, ब्रह्मचर्य, जिनपूजा और श्रमणों को दिये गये दान आदि का स्वरूप शुद्ध हो, वह तप स्वरूपशुद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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