Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 445
________________ ३४० पञ्चाशकप्रकरणम् [एकोनविंश निव्वाणमंतकिरिया सा चोद्दसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिणिंदस्स छटेणं ।। १६ ।। तीर्थङ्करमोक्षगमनमथापरमत्र भवति विज्ञेयम् । येन परिनिर्वृतास्ते महानुभावाः ततश्च इदम् ।। १५ ।। निर्वाणमन्तक्रिया सा चतुर्दशभक्तेन प्रथमनाथस्य । शेषाणां मासिकेन वीरजिनेन्द्रस्य षष्ठेन ।। १६ ।। अचिन्त्य शक्ति वाले तीर्थङ्करों ने जिस तप से मोक्ष प्राप्त किया था, वह तीर्थङ्कर मोक्षगमन नामक तप है, जो निम्नवत् है ।। १५ ।। आदिनाथ को निरन्तर छह उपवास से, महावीर स्वामी का छट्ठ (दो उपवास) से और शेष सभी जिनों को मासखमण (निरन्तर एक मास तक निराहार रहने) से मोक्ष मिला था । मोक्ष या निर्वाण अन्तक्रिया कहलाता है - क्योंकि इसके पश्चात् जीव अक्रिय हो जाता है। अथवा यह सभी क्रियाओं (योगों) का अन्त करने पर प्राप्त होता है, इसलिए अन्तक्रिया कहलाता है ।। १६ ।। तीर्थङ्करों का निर्वाणस्थल अट्ठावय- चंपोज्जिन्त-पावा-संमेय- सेलसिहरेसु । उसभ-वसुपुज्ज-नेमी-वीरो सेसा य सिद्धिगया ।। १७ ।। अष्टापद- चम्पोज्जयन्त- पापा- सम्मेत-शैलशिखरेषु । ऋषभ-वासुपूज्य-नेमिवीरः शेषाश्च सिद्धिंगताः ।। १७ ।। भगवान् ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर स्वामी क्रमश: अष्टापद पर्वत, चम्पानगरी, उर्जयन्त (गिरनार) पर्वत और पावापुरी नगरी से तथा शेष तीर्थङ्कर सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष को प्राप्त हुए ।। १७ ।। चान्द्रायण तप चंदायणाइ य तहा अणुलोमविलोमओ तवो अवरो। भिक्खाकवलाण पुढो विण्णेओ वुड्डिहाणीहिं ।। १८ ।।। चान्द्रायणादि च तथा अनुलोम-विलोमतः तपोऽपरम् । भिक्षाकवलानां पृथग् विज्ञेयं वृद्धिहानिभिः ।। १८ ।। अनुक्रम से और विपरीत क्रम से भिक्षा की दत्तियों, उपवासों या कवलों (कौर) की संख्या में वृद्धि और कमी करने से चान्द्रायण आदि तप होते हैं। यहाँ आदि शब्द से आगम में उल्लिखित दूसरे भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा, रत्नावली, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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