Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 436
________________ अष्टादश ] भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक ३३१ प्रतिमाधारी के ध्यान का स्वरूप कयमेत्थ पसंगेणं झाणं पुण णिच्चमेव एयस्स । सुत्तत्थाणुसरणमो रागाइविणासणं परमं ॥ ४६ ।। कृतमत्र प्रसङ्गेन ध्यानं पुनर्नित्यमेव एतस्य । सूत्रार्थानुस्मरणं रागादिविनाशनं परमम् ।। ४६ ।। यहाँ प्रतिमाकल्प पर होने वाले आक्षेपों के निराकरण हेतु प्रासंगिक कथन किया गया। प्रतिमाधारी को सदा सूत्रार्थ चिन्तनरूप ध्यान करना चाहिए । यह ध्यान राग-द्वेष और मोह आदि का विनाशक और मोक्ष का कारण होने से श्रेष्ठ है ।। ४६ ॥ प्रतिमा के अयोग्य साधु को अभिग्रह लेना चाहिए एया पवज्जियव्वा एयासिं जोग्गयं उवगएणं । सेसेणवि कायव्वा केइ पइण्णाविसेसत्ति ।। ४७ ।। जे जंमि जंमि कालंमि बहुमया पवयणुण्णइकरा य। उभओ जोगविसुद्धा आयावणठाणमाईया।। ४८ ।। एता: प्रतिपत्तव्या एतासां योग्यतामुपगतेन । शेषेणापि कर्तव्याः केचित् प्रतिज्ञाविशेषा इति ।। ४७ ।। ये यस्मिन् यस्मिन् काले बहुमता प्रवचनोन्नतिकराश्च । उभयतो योगविशुद्धा आतापन-स्थानादिकाः ।। ४८ ।। प्रतिमाकल्प धारण करने में समर्थ साधु को प्रतिमाकल्प को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। जो इसके योग्य नहीं हैं, उन्हें भी कोई अभिग्रहविशेष अवश्य धारण करना चाहिए ।। ४७ ।। जिस-जिस काल में विशुद्ध क्रिया रूप जो-जो भी अभिग्रह गीतार्थों को मान्य हों और विशिष्ट होने के कारण शासन प्रभावना के कारण हों, उन अभिग्रहों को मनसा और कर्मणा - दोनों से ही स्वीकारना चाहिए। यथा – ठण्ड आदि को सहन करना, उत्कट आदि आसन पर बैठना आदि ।। ४८ ॥ अभिग्रह न करने से दोष लगता है एएसिं सइ विरिए जमकरणं मयप्पमायओ सो उ । होअइयारो सो पुण आलोएयव्वओ गुरुणो ।। ४९ ॥ १. 'मयप...' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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