Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 437
________________ ३३२ पञ्चाशकप्रकरणम् [ अष्टादश एतेषां सति वीर्ये यदकरणं मदप्रमादतः स तु । भवति अतिचारः सः पुन आलोचितव्यो गुरुणः ।। ४९ ।। शक्ति होने पर भी मद और प्रमाद के वशीभूत होकर अभिग्रह धारण नहीं करना अतिचार है। अतः आत्म-शुद्धि के लिए उस अतिचार को भी गुरु के सामने प्रकाशित कर आलोचना करनी चाहिए ।। ४९ ।। उपसंहार इय सव्वमेवमवितहमाणाए भगवओ पकुव्वन्ता । सयसामत्थऽणुरूवं अइरा काहिंति भवविरहं ।। ५० ।। इति सर्वमेवभवितथमाज्ञया भगवत: प्रकुर्वाणाः । स्वसामर्थ्यानुरूपमचिरं करिष्यन्ति भवविरहम् ।। ५० ॥ इन सभी अभिग्रहों को अपनी शक्ति और जिनाज्ञा के अनुसार धारण करने वाले जीव शीघ्र ही संसार से मुक्त होंगे ।। ५० ॥ ॥ इति भिक्षुप्रतिमाकल्पविधिर्नाम अष्टादशं पञ्चाशकम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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