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सप्तम ]
जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक बन्ध होता है और उसकी विराधना करने से पाप अर्थात् अशुभ कर्म का बन्ध होता है। यही धर्म का रहस्य है। बुद्धिजीवियों के द्वारा इस रहस्य को जानना चाहिए ॥ ३ ॥
जिनभवन बनवाने के योग्य जीव का स्वरूप अहिगारी उ गिहत्थो सुहसयणो वित्तसंजुओ कुलजो । अक्खुद्दो धिइबलिओ मइमं तह धम्मरागी अ॥ ४ ॥ गुरुपूयाकरणरई सुस्सूसाइगुणसंगओ चेव । णायाऽहिगयविहाणस्स धणियं माणप्पहाणो य ॥ ५ ॥ अधिकारी तु गृहस्थ: शुभस्वजनो वित्तसंयुतः कुलजः । अक्षुद्रो धृतिबलिको मतिमान् तथा धर्मरागी च ॥ ४ ॥ गुरुपूजाकरणरतिः
शुश्रूषादिगुणसङ्गतश्चैव । ज्ञानाधिगतविधानस्य धनिकं मानप्रधानश्च ।। ५ ।।
जिनभवन निर्माण कराने का अधिकारी वह है जो गृहस्थ हो, शुभभाव वाला स्वधर्मी हो, समृद्ध हो, कुलीन हो, कंजूस न हो, धैर्यवान् हो, बुद्धिमान हो और धर्मानुरागी हो ॥ ४ ॥
गुरु (माता, पिता और धर्माचार्य आदि) की स्तुति करने में तत्पर हो, शुश्रूषादि आठ गुणों से युक्त हो, जिनभवन की निर्माण-विधि का ज्ञाता हो और आगमों को अधिक महत्त्व देने वाला हो ।। ५ ॥
जिनमन्दिर बनवाने हेतु उक्त गुणों की आवश्यकता एसो गुणद्धिजोगा अणेगसत्ताण तीइ विणिओगा । गुणरयणवियरणेणं तं कारितो हियं कुणइ ॥ ६ ॥ एष गुणद्धियोगाद् अनेकसत्त्वानां तस्या विनियोगात् । गुणरत्नवितरणेन तत् कारयन् हितं करोति ।। ६ ।।
जिनमन्दिर का निर्माण कराने की योग्यता वाला व्यक्ति जिनमन्दिर का निर्माण कराते समय उक्त गुणरूपी ऋद्धि से युक्त होने से उन गुणोंरूपी रत्नों (सम्यग्दर्शन आदि) को अनेक जीवों को देकर उनका हित करते हुए अपना हित करता है। इस प्रकार अपने और दूसरों के हित के लिए जिनमन्दिर बनवाने वाले व्यक्ति में उक्त गुणों का होना आवश्यक है ॥ ६ ॥ १. शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा ।
ऊहाऽपोहोऽर्थविज्ञानं, तत्त्वज्ञानं तु धीगुणाः ।।
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